टूट कर शाख से जब बिखरने लगे

टूट कर शाख से जब बिखरने लगे। अपनी परछाई से हम थे डरने लगे।। वक्त मरहम बना, हम मुकम्मल हुए। खुद से ही खुद को हम प्यार करने लगे।। मैं सभी को हंसा कर, भी हूं गमजदा। कौन मुजरिम मेरा, किसको दूं क्या सजा।। हमनें अब तक न सीखा था रुकना कहीं। खुद के भीतर कहीं हम ठहरने लगे।। टूट कर शाख से जब बिखरने लगे। अपनी परछाई से हम थे डरने लगे।। बेवजह क्यूं सुनूं, मैं कोई आहटें। मैं सुनूंगा तो फिर होंगी टकराहटें।। हम ज़माने से होकर के खुद ही जुदा। खुद के दिल से ही थोड़ा सा जुड़ने लगे।। टूट कर शाख से जब बिखरने लगे। अपनी परछाई से हम थे डरने लगे।।