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विरेन्द्र शर्मा "अवधूत" जी की कविताएं लेबल वाली पोस्ट दिखाई जा रही हैं

एक प्याली चाय

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 एक प्याली चाय… (विश्व चाय दिवस पर) जिंदगी से बड़ा करीबी नाता है, मुझे बचपन से भाता है, ये एक प्याली चाय…. मिल जाय, तो मजा आ जाय। सरहदों पे जवान तैनात। जाड़े की रात हो,और जागने की बात हो, एक प्याली चाय…. मिल जाय, तो बात बन जाय। रेलगाड़ी का सफर, बहुत दूर है डगर,कैसे कटे ये सफर, एक प्याली चाय…. मिल जाय, तो बात बन जाय। सर पे एग्जाम है। बस पढ़ना पढ़ना ही काम है, थोड़ा तो मन बहल जाय, एक प्याली चाय … मिल जाय, तो चैन मिल जाय। बहुत सारे मेहमान है, सब भूख से परेशान हैं, खाने में अभी देर है क्या? एक प्याली चाय…. मिल जाय, तो बात बन जाय। सुबह जल्दी जाना है, कोई नींद से जगाय, कहीं गाड़ी ना छूट जाए,सुबह सुबह, एक प्याली चाय…. मिल जाय, तो बात बन जाय। काम का बोझ बहुत है, खतम होने का नाम ही नही लेता, मन ऊब सा रहा है मैडम, एक प्याली चाय… मिल जाय, तो बात बन जाय। ✍️ विरेन्द्र शर्मा

मैं अगर खुश हूं

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  **मैं अगर खुश हूं** मैं   अगर   खुश   हूं,  तो    खुश   हूं, ये बताने की  ………………..जरूरत क्या हैं। मेरी  खुशी  सबको पचती नहीं शायद, बेवजह उनको जलाने की ………..…. ….जरूरत  क्या  है। उनकी  वजह   से   मिली   हो  खुशी, तो     ये    अलग    बात     है  वरना,  खामखां ढोल बजाने की, ……..………..जरूरत  क्या है। खुश  होना न  होना मेरे  बस  में  कहां, खा रहा गोता भंवर में ये अलग बात है, अपनी तरह औरों को डुबाने की, ………………..जरूरत   क्या   है। कोई रूठे  तो   बेशक मना  लें  उनको, फिक्र करते हैं उनकी,ये जता दें उनको।  बे वजह रूठने  की हो आदत जिनकी, ऐसे रूठों को मनाने की… ……………………जरूरत क्या है। ✍️ विरेन्द्र शर्मा

जल गई सोने की लंका

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           ।।जल गई सोने की लंका।। जल  गई  सोने  की  लंका, पूंछ  भी जल  पाई ना, दूत थे  हनुमान  उनके,अग्नि  जिसने  पैदा  किया। हनुमान  को  वानर जो  समझे,वो  बड़ा नादान  है, सूर्य  को  भी निगल जाता,बजरंगबली भगवान हैं। मिले न जब तक राम वे,खुद को भी ना जानते थे, भक्त बने  जब  राम के, तब  विश्व  ने जाना  उन्हें। राम  की  सेवा में तत्पर,दुष्टों के लिए  महाकाल हैं, पवन के  प्रिय पुत्र  हैं जो, मां अंजनी  के  लाल हैं। भक्त सब  कुछ त्याग जब,भगवान से जुड़ जाते हैं, भगवत कृपा होती है ऐसी,भगवान ही कहलाते हैं। स्वार्थ  अपना  त्याग जो,परमार्थ  में  लग जाते  है, भक्त शिरोमणि  हनुमान की, कृपा  दृष्टि वे पाते हैं। ✍️ विरेन्द्र शर्मा

सूरज की तरह

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  . **सूरज की तरह** सूरज की तरह, चलना होगा, औरों के लिए, जलना होगा। सब अपने हैं, कोई गैर नहीं, यह भाव नित्य, भरना होगा। सुख दुख तो, आनी जानी है, जीवन की, अमिट कहानी है। आज को, जी लो जी भर के, कब मौत आ जाए,किसने जानी है। पर मत भूलो, अमिट हो तुम, ईश्वर की रचना, अमित हो तुम। जो किरदार मिला, करते जाओ, पर याद रखो, असीमित हो तुम। ✍️ विरेन्द्र शर्मा

शिक्षक

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  . **शिक्षक** शिक्षक वही जो, सच्चे मानक में, निष्पक्ष हर बच्चे का, ध्यान रखे। एक ही सांचे से, ढालें सबको, गुणवत्ता का उनमें उत्थान करे। हाथ न छोड़े, कमजोर शिष्य का, उसकी नैया भी,मझधार से पार करे। बाहर बच्चे जब, स्कूल से निकले, हर मानदंड में सदा, खरे उतरें। श्रेष्ठ शिक्षक वही, कहलाते जिनके, पीठ पीछे भी, बच्चे सम्मान करें। अच्छे शिष्य तो सदा, करते ही हैं, उद्दंड बिगड़े भी, दिल से मान करें। ✍️ विरेन्द्र शर्मा

मकड़जाल

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 **मकड़जाल** मकड़ी  से  जो, खेल  शुरू  हुआ, अब  इंटरनेट   तक,  पहुंच  गया। फैला  जाल, घर घर  तक इसका, पूरा   विश्व, जाल में  लिपट गया। जैसे  मकड़ी, जाल बनाती  फिर, खुद ही, उस जाल में फंस जाती। वैसे ही,मानव ने  जाल बनाया है, खुद  अपनी  गर्दन, फंसवाया है। मानव  मकड़ी में, है  कुछ  अंतर, मकड़ी को, नैसर्गिक मिला हुनर। पर  मानव  ने, ऐसा  जाल  बुना, उपर वाला भी, खा गया चक्कर। इस जाल से, अब तो  बचने का, कोई सार्थक, राह  नहीं दिखता। अब  ईश्वर  ही,  दिलाएंगे  मुक्ति, फिर लेंगे  कोई, अवतार लगता। ✍️ विरेन्द्र शर्मा

मैं कौन हूं

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  .          **मैं कौन हूं ** जब  से  होश, सम्हाला  मेरा  मन, एक    ही     प्रश्न,    दुहराता   है। कौन   हूं    मैं,   कहां   से   आया, बार    बार     याद,   दिलाता   है। कोई   कहे   मैं,  शून्य  से   आया, तो     बोले   कोई,  आत्मा  हूं  मैं। कोई      कहे,     ब्रह्मांश   हूं   मैं, पर   भेद  समझ, ना  पाता हूं  मैं। कहता      कोई,    मैं    शरीर   हूं, अस्तित्व    मेरा,  शरीर   तक    है। उसके    आगे,  कुछ   भी     नहीं, खिलौने    सी,   मेरी     गति    है। पढ़ा   बहुत,  ...

कल को किसने देखा है

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 **कल को किसने देखा है** आज  को  जी लो, जी  भर के, कल    को,  किसने   देखा   है। मुमुक्षु   हैं    हम,  सभी    यहां, मंडराती  काल  की,   रेखा  है। भिन्न    भिन्न    हैं,   देश   यहां, भिन्न    भिन्न,   हैं   नर    नारी। भिन्न    भिन्न   हैं,  झरने   नाले, भिन्न     भिन्न,   हैं    फुलवारी। तरह    तरह    के,  जीव   जंतु, तरह   तरह  की,आकृतियां  हैं। तरह    तरह    के,    रूप   रंग, तरह   तरह   की,  छवियां   हैं। जीवन  प्रवाह,  बह   रहे  सभी, गंतव्य   सभी  का, एक  ही  है। राह  अलग  है, चाह  अलग  है, पर अंत  सभी का, एक  ही...

तुम क्यों न उनको पूजते

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 .    ।।तुम क्यों न उनको पूजते।। तुम्हें क्या, तुम  तो  सो  रहे, चैन  से  आराम  से। तुम्हें क्या, तुम्हें  तो  मतलब, है  अपने  काम  से। तुम्हें क्या, तुम्हारी  अमन, चैन  बस  कायम  रहे। तुम्हें क्या, फिर  मुल्क  में  कोई,   जिए  या  मरे। तुम्हें तो, बस  सुबह  चाय  की, चुस्की  चाहिए। तुम्हें तो, शाम  को काजू और, व्हिस्की  चाहिए। तुम्हारे लिए, हर  घटना  महज,  एक  समाचार  है। तुम्हारे लिए, अखबार  भी,मनोरंजन  का आधार है। क्यों न हो, तुम्हें  सुखी,  रहने   का  अधिकार  है। क्यों न हो, तुम्हारी  सेवा  में, स्वयं  पालनहार  है। पर क्यों नहीं, उस   परवरदिगार  को,   तुम  जानते। क्यों नहीं, सामने  होते  हुए  भी, उन्हें पहचानते। जो रात भर, जागें बिना पलकें झपकाए,प्रहरी बने। रक्षा में, तुम्हारी, अपनी  ही लहू  से...

भूला ही नहीं तुझे

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  मातृ दिवस पर…   ।।भूला ही नहीं तुझे।। मां  तुझ  पर, लिक्खूं मैं क्या, तूने   ही  तो,   लिखा   मुझे। सांसों  की, पहली धड़कन से, नित्य ही, महसूस किया तुझे। इस जगत की, पहली झलक, तेरी   आंखों  से,  पाया  मैने। तुझसा  कोई  भी, जीवन  में, दूजा  और  नहीं,  पाया  मैने। मूक   ही  आया,  था  मां  मैं, तूने  ही   तो  बाचाल  किया। नव  सुधा ढाल, वक्षस्थल  से, तुमने तो मुझे, निहाल  किया। जीवन का, पहला  कदम भी, तेरे  दम  पर, ही  रख  पाया। तेरी  उंगली,  थाम  के  माता, आज  यहां   तक,  हूं  आया। तेरी  गोदी  में, सर  रखते ही, फिक्र  न   कोई,  होती   थी। मुझे  सुलाने,की खातिर तुम, रात   रात   ना,  सोती   थी। मैं तुझमें  था, तुम  मुझमें हो, यह बात समझ, में आ...

फूले फलें ध्वज के तले

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  ।। फूले फलें ध्वज के तले।। चाहूं    शांति   चहुं   ओर  हो, कहीं   ना    कोई    शोर   हो। प्रेम  की   सदा   सरिता   बहे, मस्त  आनंद  में  मन मोर  हो। न्याय  का  सर्वत्र  साम्राज्य हो, भाई  चारे  का   व्यवहार   हो। एक  दूसरे  से यदि  हो भी तो, बस   मीठी    ही  तकरार  हो। सौहार्द  का   वातावरण   बने, कटुता   कहीं  भी  ना   दिखे। जो भी आपसी  मन मुटाव हो, हृदय   तल   से    अब   मिटे। विचारों  में   नित  बदलाव हो, न    कहीं   कोई   तनाव   हो। सबसे मिलें सदा  मिलकर रहें, अपनेपन  की  मीठी  छांव हो। बस   इतनी   सी   है   आरजू, चमन में अमन चैन कायम रहे। गगन...

नक्शे से ही मिट जाओगे तुम

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  ।। नक्शे से ही मिट जाओगे तुम।। बात आगे, बढ़ चुकी बहुत, पीछे मुड़कर, अब देखना क्या। क्यों हुआ, कैसे हुआ सब, इनमे पड़कर, होना है क्या। अब तो लगाना, है ठिकाने,   दुश्मन के हर, नक्शे नाज को। नेश्तो नाबूत, हम करके रहेंगे, दुश्मन के, पंख और परवाज़ को। पड़ोसी है हमारे, यह समझ, गुस्ताखियां, नजरअंदाज करते रहे। पछतावा होता है, ये सोचकर, अब तक माफ, क्यों करते रहे। फसादों में उलझे हो, खुद के, तो अपना मसला, सुलझाओ तुम। यूं बार बार हमारी,अमन ओ चैन, न छेड़ो मैं कहता, बाज आओ तुम। वैसे तो पहले, भी कह चुके पर, सुन लो आखिरी, दफा और तुम। अब के जो ना,बाज आए समझ लो, नक्शे से ही, मिट जाओगे तुम। ✍️ विरेन्द्र शर्मा व्ही आई पी सिटी, रायपुर

छा गए गगन पे...

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  छा गए गगन पे...🇮🇳❤️ ।।जय हिंद! जय हिंद की सेना।। एक बार, अपनी क्षमता का, दुश्मन को फिर, लोहा मनवाया। ताक ताक, हर एक ठिकाने पर, मिसाइलें शरहद, पार बरसाया। फिक्र जीवन की, कभी किए ना, जय हिंद! जय हिंद की सेना!! ये बातें, बड़ी बड़ी ना करते, जो करना होता, कर दिखलाते। अमन चैन तो, भाता इनको, पर युद्ध में, बड़ी कहर बरपाते। फिक्र जीवन की, कभी किए ना, जय हिंद! जय हिंद की सेना!! डरते नहीं, कदापि किसी से, सदा चलते, सीना तान के। भक्षक हैं ये, क्रूर हृदय के, पर रक्षक, अपनी आन के। फिक्र जीवन की, कभी किए ना, जय हिंद! जय हिंद की सेना!! एक बार भिड़, जाते जो ये, फिर मुड़कर, देखा ना करते। मातृ भूमि पर, शीश चढ़ाने, बढ़ चढ़ के, सब आगे बढ़ते। फिक्र जीवन की, कभी किए ना, जय हिंद! जय हिंद की सेना!! भय का नामों,निशां तक ना होता, भय ही खुद भय,खाता है इनसे। देख के दुश्मन,कांपे हैं थर थर, मौत भी खुद डर जाता है इनसे। फिक्र जीवन की, कभी किए ना, जय हिंद! जय हिंद की सेना!! ✍️ विरेन्द्...

सामंजस्य चाहिए

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  . **सामंजस्य चाहिए** पठन श्रवण और मनन में, सामंजस्य चाहिए। भजन भोजन और भ्रमण में, सामंजस्य चाहिए। हास परिहास और उपहास में, सामंजस्य चाहिए। दृश्य दृष्टि और दृष्टांत में, सामंजस्य चाहिए। प्राण प्रण और परिमाण में, सामंजस्य चाहिए। दानी द्रव्य और दान में, सामंजस्य चाहिए। बल बुद्धि और बलवान में, सामंजस्य चाहिए। हास्य व्यंग और श्रृंगार में, सामंजस्य चाहिए। वाणी वृत्ति और व्यवहार में, सामंजस्य चाहिए। शिक्षा शिक्षण और रोजगार में, सामंजस्य चाहिए। नेता नीति और नियम में, सामंजस्य चाहिए। सुर साज और आवाज में, सामंजस्य चाहिए। भोगी भक्त और भगवान में, सामंजस्य चाहिए। ज्ञान विज्ञान और प्रज्ञान में, सामंजस्य चाहिए। ✍️ विरेन्द्र शर्मा

ठोक अंतिम गोली

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  .     **ठोक अंतिम गोली ** कैसे  जाऊं  घायल, छोड़  तुझे  मैं, रक्त   तेरा  तो, बह   रहा  अविरल। देख साथी  की हालत, सैनिक का, मन  हो  रहा   था,  बड़ा   विव्हल।  उसने  कहा, मत चिंता  कर  मेरी, बढ़     तू    आगे,    आगे     बढ़। उधेड़   बखिया, अब   दुश्मन  के, हर     परकोटे,    पर    जा   चढ़। बहुत  करीब  हैं, मंजिल  के  हम, कमजोर   न   पड़, तू  आगे  बढ़। मेरा  जीवन  तो, होम  हुआ  अब, तू  किला फतह  कर, सीढ़ी  चढ। तेरी  आंखों  से, देखूंगा  आजादी,  गाड़   दे   तिरंगा,  तू   टीले   पर। वंदे मातरम की, गुंजन  कर  ठोक,  अंतिम गोली, दुश्मन के सीने  पर। जय हिंद ! जय भारत!!🇮🇳❤️ ✍️ वि...

अपने हृदय से पूछ लो

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  **अपने हृदय से पूछ लो** अपने हृदय से पूछ लो, खुद से, धोखा तो, नही कर रहा। जो गलत है उसे सही समझ, कहीं उसी, राह तो, नही चल रहा। जिसे अपना स्वार्थ समझ रहा, कहीं वही, उसे तो, नही छल रहा। जिसके लिए धड़क रहा दिल, वह कहीं, और तो, नहीं टहल रहा। रौशनी जहां से ढूंढ रहे हो, दीपक कहीं, वहां से दूर तो, नहीं जल रहा। पकड़ कर जिसे रक्खे हो मुट्ठी में, कहीं रेत की, तरह तो, ना फिसल रहा। अरमान तुम्हारे महफूज है ? कहीं मोमबत्ती, की तरह तो, न पिघल रहा। तसल्ली कर लो एक बार राह की, कहीं गलत, राह पर तो, नहीं चल रहा। ✍️ विरेन्द्र शर्मा

अति उत्साह में

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  **अति उत्साह में** अति उत्साह में, बहुत कुछ,  अक्सर बोल, जाते हैं लोग। गलत या सही, ठीक ठीक,  न तौल, पाते हैं लोग। ना जाने, गमले में बरगद, भला क्यो, उगाते हैं लोग। राजनीति में, खाने दिखाने, के अलग अलग, दांत होते। इतनी सी बात, भी क्यों, समझ नहीं, पाते हैं लोग। प्राण भी अपना, न्यौछावर, करने को, आतुर हैं लोग। कौड़ियों के मोल, बिक रही, शहादत, सरे बाजार अब तो।  शहादत की कद्र, पर क्यों, कर नही, पाते हैं लोग। ✍️ विरेन्द्र शर्मा

झट यकीं न करो

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  **झट यकीं न करो** कोई तस्वीर देख कर,  झट यकीं न करो। आवाज भी सुनकर, झट यकीं न करो। चलचित्र देखकर भी,  झट यकीं न करो। धोखे का जमाना है,  किसी धोखे, में न पड़ो। किसी के मरने की झूठी, खबर उड़ा, देते हैं अब लोग। मुर्दे को भी, चलता फिरता,  दिखा, देते हैं अब लोग। तहकीकात कर लो पूरी, खबर साझा, करने से पहले। फरेब का जमाना है, अपनी आंखे, खुली रखो। आंख बंद कर,किसी पर भी,  झट यकीं न करो। ✍️ विरेन्द्र शर्मा

मन

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  **मन** बड़ा  ही   चंचल, होता  है  मन, नित्य  विचरते,  रहता   है  मन। सोने  पर  भी, शांत   न   होता, सपनो  में  भी,भटकता  है मन। इसे   साधना, बड़ा  ही  दुष्कर, द्रुत  गति  से,  चलता   है  मन। एक  जगह  यह, टिक  ना पाए, करले  कोई,कितना भी साधन। मन  का   रिश्ता, सांसों  से  है, ऋषियों   ने,   यह    बतलाया। सांस  सधे  तो, मन  सध जाए, ध्यान    योग,   जो    अपनाए। सांसों    के,  आवागमन    पर, सूक्ष्म   नियंत्रण, करना  होगा। ध्यान  योग  में, बैठ  के  स्थिर, शांत  चित्त  को, करना  होगा। सांसें  बंधी तो, मन  बंध  जाय, मन  बंधे  तो, सांसें  बंध जाय। एक  सधे तो, दोनो  सध जाय, मन   साधन  का, यही  उपा...

टीस

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  . **टीस** पोता आया था वर्षों, बाद गांव अपने, अकेले रहने वाले, दादा दादी से मिलने। साथ बचपन की सारी,यादों का साया, दूर विलायत से, उड़कर था आया। यादों में, ताल तलैया थी, ठंडी छांव वाली, अमरैया थी। गलियों की, भूल भुलैया थी, वो सपनो की, छैयां भुईया थी। मम्मी पापा चाचा चाची, दीदी भैया, बुआ स्वीटी। घर लगता था तब, सपनो के घर जैसा, अब लगता मानो,वो सपनो का घर ही था। अब दादा दादी, दो ही प्राणी, बड़े से घर में काट, रहे जिंदगानी। दादा दादी, घर के एक कोने में, सिमट के रह गए, अपने बिछौने में। एक एक कदम भी चलना, उनको है भारी, पर घर में रहना, शायद उनकी है लाचारी। देख पोते का मन, हुआ बड़ा विव्हल, दुख से अश्रुधारा, अनवरत बहा निकल। दादा ने पोते को, पास बिठाया, बड़े प्यार से, सिर को सहलाया। किस बात को लेकर, रोते हो तुम, क्यों व्यर्थ, दोष पिता को देते हो तुम। जैसे भी रह रहे हैं, अब रहने दो हमको, वानप्रस्थ सा जीवन, जीने दो ...