संदेश

अनीता झा की कविताएं लेबल वाली पोस्ट दिखाई जा रही हैं

माँ की रचना

चित्र
  माँ की रचना ईश्वर ने प्रेम बांटने के लिए की माँ की रचना। कौन था वो जिसने बिगाड़ दी माँ की संरचना।। धरती, गाय, स्त्री सबको माँ की रचना माना गया है। फिर क्यों यह पाप? गौ-हत्या और बेटी-बहु को मारा गया है।। माँ की रचना के साथ प्रेम, एकता, परिवार बनाया गया है। फिर क्यों माँ के रहते ही, स्त्री के मन में डर और मानसिक तनाव बढ़ाया गया है।। यदि आपकी माँ सम्मान, प्रेम और दया की पात्र है। याद रहे, मैं और मेरी माँ भी सम्मान, प्रेम और दया की पात्र हैं।। मैं और सिर्फ़ मैं का अभिमान करने वालों ने, बदल दी माँ की रचना। दुर्भाग्य, माँ होते हुए भी स्त्री ने खुद ही, बदल दी माँ की संरचना॥

परायों में अपनापन

चित्र
  परायों में अपनापन मेरे चेहरे की हँसी गायब हो जाती है, जब मैं ढूंढती हूँ परायों में अपनापन। आँखें नम हो जाती हैं याद करके, अपनों के साथ बिताया बचपन।। काम, जिम्मेदारी, ताने, नाराजगी, बदतमीजी सब मेरे हिस्से। ये है मेरी जबानी परायों में, अपनापन ढूंढने के किस्से।। जब सुखमयी फैसले और सुखी जीवन का, कारण मुझे मानते ही नहीं। मेरे आत्मसम्मान के हनन का, कारण जानते ही नहीं। तब मैं कहती हूँ कि, परायों में अपनापन है नहीं।। परायों में अपनापन ढूंढ कर, जीवन में कमी रह जाती है। दुर्भाग्य है मानव का, परायों में अपना ढूंढ कर, आंखों में नमी रह जाती है। ।

दबा सा प्रेम

चित्र
  घर को महल बनाने में, पति पत्नी का, दबा सा प्रेम भी, हाथों से निकल जाता है। पता ही नहीं चलता, कि ये जिम्मेदारीयाँ, कब घर की खुशियों को, निगल जाता है। जरा सा वक्त देकर देखो, अपने साथी को, दबा सा प्रेम , फिर से पिघल जाता है। ये जीवन है, परिस्थिति वही रहेगी, बस चेहरे बदल जाएंगे। खुल के जीयो, अपने हिस्से की जिन्दगी, जीवन कहाँ वापिस आएंगे। शामिल करो अपनी जिम्मेदारियों में, अपना ख्याल रखना, खिलखिलाना, गुनगुनाना, पता नहीं वक्त, कब बदल जाता है। घर को महल बनाने में, पति पत्नी का, दबा सा प्रेम भी, हाथों से निकल जाता है।

अनुपस्थिति

चित्र
  अनुपस्थिति (ना होना) अनुपस्थिति झुठला देती है उपस्थिति के स्वाभिमान को। अनुपस्थिति झुठला देती है उपस्थिति के स्वाभिमान को।। उपस्थिति कुछ नही कह पाती अनुपस्थिति बलवान को। अनुपस्थिति बर्बाद कर देती है उपस्थिति के सम्मान को।। अनुपस्थिति ने कहाँ छोड़ा राम, कृष्ण भगवान को। उपस्थिति जरूरी है शब्दों से कर्म से मर्यादा से स्वयं के निर्माण को।। अनुपस्थिति तहस नहस कर देती है इन्द्रियों के निर्माण को। उपस्थिति स्वयं चाहिए थी राम कृष्ण भगवान को।। अनुपस्थिति ने तोड़ दिया था राम कृष्ण भगवान को। उपस्थिति के साथ अनुपस्थिति का सही ज्ञान होना चाहिए हर इंसान को। ।

माँ

चित्र
  माँ जान जाती है, बच्चे की मनःस्थिति कैसी है। आप कह दो, मैं ठीक हूँ, फिर भी वो जान जाती है, परिस्थिति कैसी है।। माँ की याद आने पर भी, मुझ जैसे बच्चे, मिलने जाते नहीं। माँ भी तड़पती होगी, क्योंकि उसे भी बच्चे समय से, मिल पाते नहीं।। माँ जान बूझ कर, अपने बच्चे को, पास बुलाती नहीं। शांत भाव से, बच्चों की गृहस्थी बचाती है, माँ जताती नहीं।। माँ की जगह, कोई नही ले सकता। माँ जैसा प्यार, कोई नहीं दे सकता।।

खुल के जियो

चित्र
  पहन ओढ़ कर श्रृंगार करना, आप स्त्री हो, सबसे पहले खुद से प्यार करना। मुस्कुराना और खिलखिलाना, आप स्त्री हो, सबसे पहले अपने मन और तन को तैयार करना। पता नहीं कब ईश्वर हमें बुला ले, किसी और की जरूरत नहीं, हम खुद ही स्वयं को मना लें। खुल कर जिन्दगी जीना, आप स्त्री हो, सबसे पहले खुद से प्यार करना। चेहरे पर मुस्कान आँखों मे चमक रखना, आप स्त्री हो, सबसे पहले खुद से प्यार करना, आप स्त्री हो।

मरना पड़ता है

चित्र
  ये जिन्दगी है जनाब यहाँ सबके लिये जीना पड़ता है, सब में से ही किसी एक के लिए रोज थोड़ा थोड़ा मरना पड़ता है। हम अपनों के लिए खुद को रोज थोड़ा कुर्बान करते हैं, दुर्भाग्य हमारा कि वही अपने हमें बदनाम करते हैं। जिन्दगी है जनाब अन्तर्मन से मर कर तन से जीना पड़ता है, मतलब के संसार में कोई किसी का ना अपना है। जिन्दगी है जनाब स्वार्थी संसार में जतन से जीना पड़ता है, साँसें लेना और साँसों का खत्म हो जाना के बीच में साँसों का कम हो जाना भी सहना पड़ता है। जिन्दगी है जनाब रोज थोड़ा थोड़ा मरना पड़ता है।

शून्य

चित्र
मैं शून्य क्यों मानती हूँ अपने आप को। आओ बताऊं कविता में अपने इतिहास को।। मेरी आन, बान, शान भारत मेरा देश है। जन्म स्थान बिहार जो मेरे लिए विशेष है।। 94,163 वर्ग किमी क्षेत्रफल वाले बिहार में मैं अनीता शून्य हूँ। भारत के 2.86 प्रतिशत मानवों में मैं शून्य हूँ।। राज्यों के क्षेत्रफल में 12 वाँ इसका स्थान है। उत्तरी दिशा नेपाल से सटे मधुबनी के गांव अरेर में मेरा जहान है।। 173 फिट 53 मीटर समुद्र से बिहार की ऊंचाई है। लम्बाई 345 किमी और 483 किमी. चौड़ाई है।। शून्य से कम कुछ नहीं इसलिए खुद को मैं जीरो मानती हूँ। जीरो से हीरो का सफर तय निश्चित होगा ऐसा मैं मानती हूँ।।

अभिभावक

चित्र
  प्रिय अभिभावक, आप वो सड़क हैं जो खुद एक जगह रहकर, सबको मंजिल तक पहुंचाते हैं। मेरे जीवन में, वो मिठास है आप, जो दिखते नहीं पर मंजिल की और प्रेम से ले पाते हैं। आपका संयम और संघर्ष, हम जैसों को, वृक्ष में लिपटे, बेल की तरह उठाते हैं। आप एक जगह रहकर, हमें मंजिल तक पहुंचाते हैं।। आप हमारे बीच में रहकर, हमें उठना, बढ़ना, संघर्ष व मर्यादा के साथ मेहनत की सीढ़ी पर चढ़ाते हैं। सड़क की तरह एक जगह रहकर, हमें मंजिल तक पहुंचाते हैं।। मैं अनीता झा अपने अभिभावक की आभारी हूँ। आपकी कृपा से शिक्षित हूँ, मैं बारम्बार आभारी हूँ।

मेला

चित्र
अपनो की भीड़ में, तेरा मन अकेला है। कैसे तुझे बताऊं जीवन में, सुख कम दुख का मेला है।। कुछ क्षण आए होगें तेरे जीवन में, जिसे तेरे मन ने रो रो के झेला है। तेरी आँखें नम होकर कह रही थी, तू अपनों की भीड़ में अकेला है।। तेरे पास भी मेरे जैसे, नाम के रिश्ते होगें। बस मन को इतना समझा, इनमें कुछ फरिश्ते होंगे।। तुझे प्यार मिला तो, तेरे भाव जाग गये। नम आँखें बता रही थी, दिल के घाव भाग गये।।

संतोष

चित्र
  मिट्टी के बरतन से खेलकर, मैं बड़ा खिलखिलाती थी। अपने प्यारे बचपन में, मैं बड़ा चहचहाती थी।। ना जाने मुझको क्या हो गया, मेरे पास अपने बहुत सारे, आकर्षित व ठोस बर्तन है, तब भी मन उदास व दिल में है संकोच। बहुत कुछ अपना है और चाहिए, ये सोचकर उदास मन और खत्म हुआ संतोष।। सहनशक्ति, मौन और भविष्य की चिंता ने, मेरे मन में बढ़ाया संकोच। इन बातो के बीच में मरता रह गया, मेरे मन का संतोष।। खेलना, खिलखिलाकर जोर से हँसना और अपनों के संग खुश रहना, अदांज बन जाए। आ जाओ सब मिलकर, एक दूसरे का, बचपन लौटाएं।।

उम्मीद की चिंगारी

चित्र
  स्त्री के चेहरे को मुरझा देती है, अपने पति की दी हुई, उम्मीद की चिंगारी। ऐसा मन बन जाता है, जैसे दीया की चिंगारी। कितनी बार क्रोध करे और रोए स्त्री यही तो होता है हर बारी।। स्त्री के चेहरे को मुरझा देती है, उम्मीद की चिंगारी। स्त्री बार बार बार संभलती और मुस्कुराते हुए सोचती है, कभी ना कभी आयेगी हमारी बारी। स्त्री के चेहरे को मुरझा देती है, उम्मीद की चिंगारी।। स्त्री शांत हो जाती है, फिर अपने आत्मसम्मान को, वापिस पाने की, करती है तैयारी। तब पुरुष, उपहास करते हुए कहते है, शायद अब तुम्हे, जरूरत नहीं है हमारी।। ऐसा पुरुष को, इसलिये लगता है, क्योंकि अब स्त्री के चेहरे को, नहीं मुरझा पाती, उम्मीद की चिंगारी। कलम की लिखावट, तकदीर की बनावट, चेहरे की घबराहट को समेटती स्त्री, करती है अपने निर्माण की तैयारी। अब कहाँ मुरझा पाती है, "मुस्कान" को, उम्मीद की चिंगारी।।

फीका सिंदूर

चित्र
  तन मिलता पर मन मिलता नहीं, हँस कर निभाती है स्त्री दुनिया का दस्तूर। कुछ स्त्रियों के भाग्य में होता है फीका सिंदूर।। माँग सजाने के कुछ पल बाद से ही, उड़ जाता है स्त्री के चेहरे का नूर। कुछ स्त्रियों के भाग्य में होता है फीका सिंदूर।। स्त्री जीवन बिताती है परिवार में कुछ, सामाजिक व पारिवारिक कारणों से होकर मजबूर। कुछ स्त्रियों के भाग्य में होता है फीका सिंदूर।। संस्कार, मर्यादा, परिवार की भावनाओं के कारण, स्त्री होकर भी बेकसूर, चुपचाप हँस कर लगाती है अपने माँग में फीका सिंदूर। कुछ स्त्रियों के भाग्य में होता है फीका सिंदूर।।

सशक्त स्त्री

चित्र
  स्वयं रो कर स्वयं चुप हो जाना, सशक्त व मजबूत स्त्री की पहचान है। ये तो ज्यादातर स्त्री की कहानी है, वो कहाँ पुरुषों की तरह महान है। अपने सुख स्वाभिमान को त्याग कर परिवार को अहम मानना स्त्री की पहचान है। उसके भी कुछ सपने है, परिवार से कुछ उम्मीदें है, परिवार को कहाँ पता है कि स्त्री में भी जान है। स्त्री को अपना महत्त्व बताना पड़े और कहने पर परिवार को प्यार जताना पड़े, वो रिश्ता कहाँ, प्रेम व अभिमान हैं। स्त्री जब जहाँ रहना चाहती है तो सब त्याग कर रहती है, ये जानते हुए भी की उसका हर रिश्ता बेजान है। इसलिए कहा जाता है कि स्त्री महान है।

अपना फर्ज निभाते हैं

चित्र
इस दुनिया में सब, अपना फर्ज निभाते हैं। बी. पी. शुगर बढ़ाने वाले ही, मशीन व दवाई लाते हैं।। जी हां, इस दुनिया में सब, अपना फर्ज निभाते हैं। मैं हूं ना कहने वाले ही, साथ छोड़ जाते हैं।। वो हमारे सुख में, साथ आते नही हैं। क्योंकि फर्ज है उनका भी, दुख में मुस्कुराते नहीं हैं।। बहुत शातिर हैं, वो चंद लोग, जो अपना फर्ज निभाते हैं। क्योंकि परेशानियों में डालकर, वो अकेले में मुस्कुराते हैं, लेकिन वो अपना फर्ज जरूर निभाते हैं।। वो कुछ ऐसा नहीं कहते, कि किसी बात की शुरुआत हो। और कुछ ऐसा भी नहीं करते जिससे सुख भरी रात हो।। लेकिन हमें तकलीफ में देखकर, वो हमे अपनाते हैं। पीठ पीछे मुस्कुराकर, वो सामने से फर्ज निभाते हैं।। अपनों के दायरे में नाम आता है इनका, जो ऐसा फर्ज निभाते हैं।

लाल कफन

चित्र
मै क्यों ख्वाहिश पूरी करूं उनकी। जिन्होंने मुझे लाल कफन में दफना दिया।। मैं क्यों मुस्कुराऊं उनके कहने पर। जिन्होने मुझे रोना और उदास रहना सिखा दिया।। मैं क्यों उनके हिसाब से जीऊं। जिन्होने मुझे जिंदा लाश बना दिया।। बताओं मुझे, मैं क्यो कठपुतली बन जाऊं। किसी साहब की, मुझे लाल कफन पहना दिया।। मैं क्यों तनिक दुख बर्दाश्त करूं उनके लिये, जिन्होंने अपने जीवन में मेरा न. बाद मे रखा है। मेरी खिलखिलाती मुस्कान को सिर्फ विवाद मे रखा है।। मै क्यों उनके साथ समझोता करूं, जो मेरे सब कहने पर भी मुझे नहीं समझ पाते। दुख में साथ मांगते मेरा और सुख में मुझे खोजने नहीं आते।। उन्हें माननी होगी ये बात उन्होंने मेरा हंसना भुला दिया। बड़े ही शातिर थे वे शख्स, मुझे लाल कफन में दफना दिया।।

श्री राम लक्ष्मण जानकी स्वागतम

चित्र
श्री राम लक्ष्मण जानकी स्वागतम। 22 जनवरी 2024 दिन अत्यन्त पावन व उत्तम।। हम मिथिला वासी, बड़े भाग्यशाली, जो देखेंगे। श्री राम लक्ष्मण जानकी स्वागतम। जीवन हुआ धन्य और उत्तम॥ 22 जनवरी 2024 के दिन, राम स्वयं धरती पर आएंगे। 84 लाख जीव कलयुग के, सब तर जायेंगे।। मोदी जी के साथ-साथ, डी.एम. सी. एम. मजदूर। सभी को कोटी - कोटी धन्यवाद, जो अयोध्या को किया दोबारा से मशहूर॥  मैं अनीता झा अपने घर को, दुल्हन सा सजाऊंगी। श्री राम लक्ष्मण जानकी स्वागतम को, भव्यता से मनाऊंगी।।

मृत्यु

चित्र
  मेरे आँगन की पहली मृत्यु ने एक अजीब सच बताया है। अनुभव से लिखा है मैंने, मानव मे कितना प्रेम और कितना रंग समाया है।। यूं तो कभी साथ मे बैठकर दो शब्द कहा नहीं। अब मृत्यु देखकर कहा मानव ने मेरा प्रिय रहा नहीं।। वाह रे मानव तूने कैसा प्रेम जताया है। मृत्यु के बाद तूने क्या फर्ज निभाया है? माना मैंने कि तुझे उनसे तकलीफ थी। क्या मानव की मृत्यु एक नई सीख थी? मानती हूं मैं, जीते जी इतना सम्मान मिलने पर, मानव का अहंकार बढ़ता है। क्या मृत्यु के बाद के फ़र्ज को पूरा करने से संस्कार बढ़ता है? मानव तेरा दिखावा और तेरा स्वार्थ यही तक साथ निभाएगा। याद रखना, ईश्वर के घर, सिर्फ निस्वार्थ प्रेम व सच्चा कर्म ही जाएगा।। मत बहाना आंसू किसी की मृत्यु पर। एक बार जीते जी गले लगाना, मानव की गलतियों को नजरअंदाज कर।।

कौन हैं ये लोग

चित्र
संयम ने मुझ‌को मौन किया, क्रोध ने छीने लोग। संघर्ष ने बल दिया, तनाव ने दिया है रोग।। सारा खेल इच्छाओं का है, वरना सब संयोग। जो मिला उससे खुश नहीं, जो नहीं उसका वियोग।। मैं मानव, अपनें दायरे से ज्यादा मांगू। तभी शायद, लगता है तन को रोग।। मुझे मानना होगा सत्य, समय और प्रत्यक्ष लोग। जरा पहचानना होगा, मुझे उदास करने वाले, कौन हैं ये लोग।।

घाव

चित्र
  मुझसे कुछ ना कहो, मन के घाव गहरे हैं। अच्छे स्वभाव की उम्मीद ना करो, मन में क्रोध के पहरे हैं।। आप सब वही हो, जिन्होंने मुझे घाव दिया है। गुनाह मेरा ये है कि मैंने, प्रेम का छांव दिया है।। बड़ा दिल दुख गया है मेरा, शब्द मन में ठहरे हैं। अच्छे स्वभाव की उम्मीद ना करो, मन में क्रोध के पहरे हैं।। सभी से अच्छा व्यवहार करूं, ये मेरा स्वभाव है। सब इसके लायक नहीं, इसलिये मन में घाव है।। और मजबूत बन सकूं, इसलिये क्रोध का ताव है। मेरे मन के घाव का कारण, मेरा अपना स्वभाव है।।