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अनीस ख़ान ‘इंसान’ की कविताएं लेबल वाली पोस्ट दिखाई जा रही हैं

शहीद

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  शहीद पद चिन्ह जिनके देश की सीमा बना रहे हैं। वो नाम क्यों इतिहास से छुपाए जा रहे हैं।। बर्फ, पहाड़, रेत, जंगल बड़ी तकलीफ है जहाँ। गाँव की मिट्टी छोड़कर फौजी रहता है वहाँ।। बीवी, बच्चे, माँ-बाप, बहन-भाई छूट जाते हैं। देश की रक्षा के ख़ातिर कई नाते टूट जाते हैं।। लरज़ते हाथ, राखी, बोझिल आँखें, राह तकती हैं। फोन पे आवाज़ "घल आओना" सवाल करती है।। कभी तो सलामत वो शरीर के साथ आ पाता है। कभी लिपटे तिरंगे में शरीर से पहले आ जाता है।। काश कि उसके चरणों को मैं पल-पल छूता होता। काश कि उसके चरणों का मैं काला जूता होता। ।

ख़याली लकीरें

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  *ख़याली लकीरें* ज़मीन, फिजाओं  और समंदर पर जो लकीरें दिखती नहीं खींच दी है  कुछ ख़ुदग़र्ज़ों ने अपनी ऊंची ऊंची  नाकों के लिए जिन्हें... न इंसान समझ में आया न इंसाफ  और न ही इंसानियत  बन गए है वो हुक्मरान  और सबब–ए–हैवानियत ये गुनाह है... चंद सिक्कों की लालच दे  इंसान को मशीन बनाना उसमें सोचने समझने की ताकत छीन  हर हुक्म पे कहलवाना यस सर और उसे कर देना खड़े उन खयाली लकीरों पर गुस्सा, गुरूर और दुश्मनी,  भरकर ग़ज़ब है... इस खयाली लकीरों के  इस तरफ कत्ल कत्ल है कातिल को सज़ा है  और उस पार का कत्ल  साहस है रुतबा है इनाम और चक्रों की रज़ा है अरे... हर कोई होता है  सुहाग, बाप या भाई किसी न किसी का  यह बात तो साफ है फिर ये कैसा इंसाफ है? - अनीस ‘इंसान’

मैं क्यों आया हूँ?

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 मैं क्यों आया हूँ? जाति धरम और पैसों की दीवार गिराने आया हूँ मैं आशिक सच्चाई का मैं इश्क लुटाने आया हूँ ग़ुलाब की कलम से कलम कर कलम से लिखी आयते मोहब्बत इस दुनिया को पढ़ाने आया हूँ मज़बूत दिल, मज़बूत कंधे, मज़बूत इरादे भी हैं कुदरती कानून की चादर सर पे सजाने आया हूंँ बाज़ुओं में मेरी ताक़त भरी इस ऊपर वाले की बाज़ू वाले के साथ सुनहरी फसल उगाने आया हूँ दिल में अक़ीदा और आँखो में मंज़िले इंसानी है मैं ज़मीं पे सदाकत के फूल खिलाने आया हूँ 'इंसान' हूँ मैं औक़ात मेरी हर शय से ऊंची है दोज़ख भी फूंकी है अब जन्नत बनाने आया हूँ

मेरी छोटी सी दुनिया

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 "मेरी छोटी सी दुनिया" छोटी ही सही पर मेरी दुनिया मेरे रुकने से रूकती है मेरे चलने से चलती है। मेरी दुनिया में उंगली की गिनती के कुछ लोग हैं जो इस दुनिया में मेरे अपने हैं जिनके लिए मैं जीता हूं  और शायद मर भी सकता हूं इन्हें फर्क पड़ता है मेरी खुशी और मेरे गम से इन्हें फर्क पड़ता है मेरे बीमार पड़ने से यहां तक कि मेरी वजन से इन्हें फर्क पड़ता है जब मैं खाना नहीं खाता हूं जब मैं नज़रे चुराता हूं जब मैं गुस्सा हो जाता हूं या जब मैं मुस्कुराता हूं हां इन्हें फर्क पड़ता है मेरी इस दुनिया की सास-बहू में, दादा-पोते में, मां-बेटे में, भाई-बहनों में, देवरानी-जेठानी में, ननंद- भाभी में, और सभी रिश्ते में मेरे होने ना होने से फर्क पड़ता है बस यही सोच सोच कर मैं जिंदा हूं, कई खुदखुशी के  ख्याल के बाद भी मैं जिंदा हूं. पर सच कहूं कड़वा है पर सच है कि मैं सिर्फ जिंदा हूं कि मुझे उतारा गया था जमीन पर एक बड़े मकसद के लिए ना वो मकसद मिला ना उसकी कोई मंजिल  ना कोई रास्ता इसलिए सांस दर सांस मैं मर रहा हूं। मैं जिंदा तो हूं पर सिर्फ मौत का इंतजार कर रहा हूं। ऑफिस में भी मैनेजर था और घ...

पिंडदान

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  पिंडदान मैं एक हूं  और होना चाहता हूं एक से दो जैसे टूटती एक कोशिका और टूट कर हो जाती है एक से दो लेकिन,  बस ऐसे ही नहीं हो जाती  एक कोशिका  एक से दो  पहले समाहित करती है  खुद में अनेक एक  भोजन के रूप में और जब भर जाता है पेट पा लेती है पूर्णता  आकार की उसमें निहित पूर्णांश प्रेरित करता है उसे  अस्तित्व के प्रयोजनार्थ  कि आगे उसे निभानी है  समग्र व्यवस्था में भागीदारी और उस व्यवस्था के लिए  उसे हो जाना है एक से दो और वो हो ही जाती है एक से दो हां ऐसे ही मैं भी हो जाना चाहता हूं एक से दो कोशिकाओं से बना ये पिंड, ये शरीर   तो हो ही जाता है एक से दो हर बाप का  या हर मां का पर ‘वह’ नहीं हो पाता एक से दो जैसे मैं भी नहीं हो पाया बाप हो कर भी  एक से दो और न कभी हो पाऊंगा  शरीर के माध्यम से क्योंकि मैं शरीर नहीं मैं, मैं हूं जो सच्ची और सही समझ से,  पूर्ण शिक्षा से और  पूर्ण शिक्षक से होता है  एक से दो वरना  सिर्फ होते रहते हैं पिंड से पिंड  एक से दो नहीं हो पाता है इंसान से दूस...