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किसलय खरे "ज़दीद" की कविताएं लेबल वाली पोस्ट दिखाई जा रही हैं

बस एक गुलाब चाहता हूं

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अब मैं आंखों में ऐसा एक ख़्वाब चाहता हूं दहलीज ए कब्र पर मेरी बस एक गुलाब चाहता हूं मेरे सवालों की फेहरिस्त में जो एक सवाल है मेरे क़ातिल से मैं उसका जवाब चाहता हूं हमदोश तो खुशी में शामिल कई हैं लेकिन इज़हार ए ग़म को भी एक अहबाब चाहता हूं देखा है इंसां की शक्ल में भेड़ियों को सो आज ही की शब में वो अज़ाब चाहता हूं आज के मुबैयना शायर जो कहकर दाद पाते हैं  इल्म अपनी भी शायरी में इतना खराब चाहता हूं वो मज़हब के लोग तो मियां क़ाफ़िर हैं ऐसे हर्फ  जिसमें लिखे हों वो मुकम्मल किताब चाहता हूं जदीद रोज़ ए हिसाब के पहले तो मुमकिन ही नहीं है ये क्या की आज आफताब तो कल मेहताब चाहता हूं Insta ID - @jadeed_nazmkaar Link - https://www.instagram.com/jadeed_nazmkaar?utm_source=qr&igsh=NzBud2hxNzhkOHo5

जैसे कोई कर्ज हो उमर भर ठहरा

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एक गुनाह कुछ यूं हमारे सर पर ठहरा  जैसे कोई कर्ज हो उमर भर ठहरा चला था ख़ाबों में देखे हर रास्ते पर मैं   जनम का अंधा मैं हर रास्ते पे जा कर ठहरा गया है जब से वो शक़्स जिसको हम वालिद कहते थे  हमारी आँखों में तब से है कोई समुंदर ठहरा उदासी का मौसम जिस बस्ती में छाया हो  समझो वही एक कोने में मेरा घर ठहरा लेकर आए कभी लिफ़ाफ़े में बंद एक खुश खबरी  कहां मुकद्दर में मेरे ऐसा कोई नामाबर ठहरा इश्क में होते हुए भी साथ था मैं दूसरी के भी  कैसे कह दूं की किसी का भी मैं उम्र भर ठहरा ये शगुफ़ नहीं है कहानी है ज़ीश्त की मेरी  फकत एक यही मुझमें अब तलक हुनर ठहरा "जदीद" ऐसी ग़ज़ल कहते हो कि मालूम होता है  अगले जमाने का तुमको कोई हो डर ठहरा Insta ID - @jadeed_nazmkaar Link - https://www.instagram.com/jadeed_nazmkaar?utm_source=qr&igsh=NzBud2hxNzhkOHo5

चुभे क्यूं तीर सबको मेरी आवाज के

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चुभे क्यूं तीर सबको मेरी आवाज के  नाखून हैं क्या ये किसी चील बाज के गर हम में शोखी है नहीं तो हम चाहते भी ये है कि हमसे आके मिले लोग हों जो हममिज़ाज के मेरे मकां में कोई भी इंसान नहीं है पर  दो चार बोरे पड़े हुए है यूं ही अनाज के नगदी नहीं है जेब में मगर फोन पे में है  यूं ही कुछ ढाई सौ रुपए वो भी ब्याज के इतनी नादारी है की अब कैसे जुगाड़े हम  बिस्तर पर पड़ी मां के लिए पैसे इलाज के होते थे पहले लाखों में दो चार ही शायर  दो लाइन लिख के बच्चे बने हैं शायर आज के आखिर वो भी लटक गया एक पंखे से "जदीद"  सह नहीं पाया वो भी ताने समाज के Insta ID - @jadeed_nazmkaar Link - https://www.instagram.com/jadeed_nazmkaar?utm_source=qr&igsh=NzBud2hxNzhkOHo5

देखा नहीं गया

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खुद के अंदर खुद का मरना देखा नहीं गया ख्वाबों का यूं मातम करना देखा नहीं गया हम आए थे शहर तुम्हारे कल तुमसे मिलने मिले बगैर ही हिजरत करना देखा नहीं गया कैसी कैसी चाहत मेरी तुमसे हैं इश्क में हर चाहत का रोज बिखरना देखा नहीं गया कोई न कोई नया घाव जिस्म को हर एक दिन है रोजाना एक ज़ख्म निखरना देखा नहीं गया कभी कभी तो कुछ थोड़ी खुशियां घर आती हैं अब इस तरीके घर संवरना देखा नहीं गया धीरे धीरे एक एक सांसें रोज घट रही बूंद बूंद का दरिया भरना देखा नहीं गया चाट गई है सुकून नींद मेरी वो एक सूरत इन हालों दिन रात गुजरना देखा नहीं गया भीड़ में मेरा चर्चा "जदीद" अब तो रहने दो मुझसे यूं अजमत का उतरना देखा नहीं गया Insta ID - @jadeed_nazmkaar Link - https://www.instagram.com/jadeed_nazmkaar?utm_source=qr&igsh=NzBud2hxNzhkOHo5

समय

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  हूं घिरा मैं कांटों से हर ओर से जैसे बुरा चलता मेरा समय है अभी छुपता फिरता हूं ना जाने क्यों आज कल किसका खाता मुझे ऐसा भय है अभी ना सहारा कोई मेरा दिखता यहां किनारा भी कश्ती को मिल न रहा जब से खोया उन्हें है तो ऐसा लगे कि खोने को अब मेरे  कुछ न रहा विफलताओं से पस्त ये जीवन मेरा ना कविता को मिलती ही लय है अभी हूं घिरा मैं कांटों से हर ओर से जैसे बुरा चलता मेरा समय है अभी सारे सपने मेरे अब व्यर्थ हुए पसरे चहुं ओर निराशा के अर्थ हुए जतन खुद के लिए तो सारे किए पर बेवश थे हम, असमर्थ हुए कल से मैं तो अभी हूं परिचित कहां हो रहा मेरा जीवन क्षय है अभी हूं घिरा मैं कांटों से हर ओर से जैसे बुरा चलता मेरा समय है अभी अब तृष्णा कहूं या अपेक्षा मेरी अधिकार कहूं या  कि इक्षा मेरी प्राप्त वैसे तो सम्पूर्ण कुछ भी नही ये जीवन भी जैसे कोई भिक्षा मिली कष्ट सहना हैं और फिर चले जाना है अंत मेरा लगे जैसे तय है अभी हूं घिरा मैं कांटों से हर ओर से जैसे बुरा चलता मेरा समय है अभी छुपता फिरता हूं ना जाने क्यों आज कल किसका खाता मुझे ऐसा भय है अभी

बनारसी प्रेम

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  एक कलम , पत्र और श्याही लूं अब एक दूजे का सार लिखें गहन चिंतन पूरे मन से कर आ दोनो को विस्तार लिखूं तुम शहर बनारस की ऋतु वसंत मैं धूल का एक बवंडर हूं तुम संगेमरमर की चमक धमक मैं काला सा एक खंडहर हूं तुम घाट घाट बहती गंगा मैं घाट का अंतिम पत्थर हूं  तुम सरल, शांत, सुंदर स्वरुप मैं व्यवहारों से फक्कड़ हूं तुम अस्सी घाट की शाष्त्रवादी मैं परिभाषित आवारा हूं तुम जैसे शाम दिसंबर की में अंतिम जीवन यात्रा हूं तुम काशी की सी आदि अंत मैं बीच लहर में फसा हुआ मणिकर्णिका जैसी रौशन तुम मैं मृत्यु सैया में धसा हुआ तुम प्रेम पूर्ण और पाक साफ मैं मटमैली सी सीढ़ी हूं तुम गंगाजल की ठंडक हो में दरस तरसती ये पीढ़ी हूं तुम वो बनारस हो प्रिए जो तंग गली में बसता है जो खिलखिला कर हंसता है जो गंगा को जाने का रस्ता है मैं वो बनारस हूं प्रिए  जो ट्रैफिक जाम में ठहरा सा  जो शंख ध्वनि से बेहरा सा जो गहन रहस्य से गहरा सा एक बात बताओ मुझको प्रिए क्या आसान है तुम सा होना कि, मोह, मर्म से तुम अछूत  जन्म , मरण, भविष्य, भूत सब काल चक्र गए पीछे छूट तुम गौरी शंकर की सी मूर्त शक्ति, तेज, की तुम स्...