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ये वृक्ष भी उम्रदराज हो गए

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जीवन के उस  पड़ाव के बारे में लिख रहा हूँ जब एक व्यक्ति अपनी ज़िम्मेदारियों को निभाता निभाता बूढ़ा हो चलता है। उस व्यक्ति को वृक्ष के माध्यम से चित्रित करने का प्रयास किया है। और चिड़ियों-पत्तियों को बच्चे व रिश्तेदारों की उपमा दी है।  ये वृक्ष भी उम्रदराज हो गए छावं देने के बदले छावं को ही मोहताज हो गए चिड़ियों ने भी अब आना बंद कर दिया डाल पर चहचहाना बंद कर दिया अब टहनियां भी ज़मीन से नाता जोड़ने लगीं पत्तियां भी धीरे धीरे सांथ छोड़ने लगीं जिनके पत्तों के नीचे होती थी घनी छाँव वो ही आज छाँव को मोहताज होने लगी पर एक चीज है जड़ें आज भी मजबूत हैं आंधी तूफ़ान में अडिग अचल खड़ी हैं खासियत जड़ों की मिटटी को बांधे हुए है तूफ़ान में भी खुद को सम्हाले हुए है उम्मीद है की वो बसंत फिर से आएगा रौनक लौटेगा और वृक्ष फिर से खिलखिलाएगा. Upendra Agrawal "Aarya"

आए हैं राजा राम

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स्वागत है आपका आए हैं राजा राम पधारे हैं राजा राम, विराजे हैं श्री राम भेंट मिठाई बांटिए, आए हैं राजा राम मिलकर खुशी मनाइये, आए हैं राजा राम पधारे हैं राजा राम, विराजे हैं श्री राम फूल से अंगना महकाइये,  आए हैं राजा राम रंगो से द्वार सजाइए, आए हैं राजा राम पधारे हैं राजा राम, विराजे हैं श्री राम छप्पन भोग लगाइए, आए हैं राजा राम माथे तिलक लगाइये, आए हैं राजा राम पधारे हैं राजा राम, विराजे हैं श्री राम आरती की थाल सजाइए, आए हैं राजा राम ढोल नगाड़े बजाइए, आए हैं राजा राम पधारे हैं राजा राम, विराजे हैं श्री राम सीता जी संग लाए हैं, आए हैं राजा राम वानर दल उठ आए हैं, आए हैं राजा राम पधारे हैं राजा राम, विराजे हैं श्री राम आए थे जिस प्रेम से शबरी के श्री राम, उसी प्रेम से आए हैं मेरी कुटिया में राम अहिल्या के श्री राम, केवट के श्रीराम, दशरथ के श्री राम, कैकई के श्री राम स्वागत है आपका आए हैं राजा राम पधारे हैं राजा राम, विराजे हैं श्री राम

बंटवारा

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 **बंटवारा** सुना है उनका, बंटवारा हो गया। घर बंट गया, खेत बंट गए, धन बंट गया, भाई बंट गए। सबका अपना, अलग अलग, रहबसर,अलग रहगुजर हो गया।  मां बंट गई, बाप बंट गया, बंट गई, जिम्मेदारियां भी। खून को, बांटे कोई क्या, पर रिश्तों का, सामां बंट गया। बंटवारा ये क्या ,सिर्फ धन का है, या बंटवारा, ये मन का भी है? खेल तो सारा, मन का समझो, बंटवारा ये केवल, मन का ही है। मन जो मिला था,सब एक थे तब, मन बंट गया,तो सब बंट गए अब। स्वार्थ सारा, इस मन का ही है, मन क्यूं इतना, आवारा हो गया। कौन किसके, मन पे भारी, किसमे कितनी, समझदारी। खेल जीवन, भर का है ये, मन का ही, और मन से है ये। बंटती जमीन, न बंटता चमन है, सागर बंटे ना, बंटता गगन है। मन तो हमारा, सागर से भी गहरा, बोलो फिर कैसे, बंटता ये मन है। लेखा जोखा इसका,बाद मे मिलेगा, क्या क्या मिला,और क्या खो गया। मन को अगर, साध लो तो समझो, माया का यह खेल, वहीं रुक गया। ✍️ विरेन्द्र शर्मा

विश्व काव्य दिवस

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  **विश्व काव्य दिवस ** रोना हंसना, गाना चिल्लाना, शाश्वत गुण है, मानव का। न जाति धर्म का, बंधन है, न सीमाएं बनी, बंधन इसका। बिना शब्दों की, रचना के, गीत न कोई, बन पाता। गीत हुआ मुखरित, शब्दों से, वही काव्य, है कहलाता। भावों की अभिव्यक्ति, है कविता, पाषाण को भी, पिघला देती। बड़ी बड़ी दरारें, पल में, खुद मरहम करती, भर देती। मत मतांतर, देश काल के, उलझे हुए, रिश्ते जो हों। प्रबल शक्ति है, कविता में, हर उलझन, सुलझा देता वो। विश्व काव्य दिवस, का मतलब, मानव का, एक सूत्र होना। बैर भाव सब, छोड़ो पीछे, आओ कविता, रचें सलोना।   ✍️ विरेन्द्र शर्मा

होली आई रे

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होली आई रे, होली आई रे, रंगों के त्यौहार की सबको बधाई रे। होली आई रे। होली की रात पिछली, मिष्ठान की तैयारी। रंगीन कल के सपने, देखें सभी नर नारी। महिलाएं कुछ किचन में गुझिया बना रही हैं। होली की है तैयारी, गप्पे लड़ा रही है। कोई लोई बनाता है, लगा कोई बेलने। भरता है कोई, कोई तल रहा है तेल में। गुझिया भी बन गई है, सब लोग सो गए हैं। होली के रंग बिरंगे सपनों में खो गए हैं। चेहरे पे थकन उनके न देती दिखाई रे। होली आई रे। होली की भोर है, बच्चों का शोर है। उल्लास ही उल्लास दिखता चारों ओर है। पिचकारी कहीं है तो कहीं रंग भरे गुब्बारे। बच्चे है रंग बिरंगे, होली खेलते सारे। युवक भी कम नहीं हैं, टोली बनाए हैं। जा के अबीर सबको घर घर लगाए हैं। बूढों का पूछना क्या? सबकी खुशी में खुश हैं। है सबके दिल में खुशियां, महिला है या पुरुष है। घर में सभी के खुशियों की सौगात आई रे। होली आई रे। कीचड़ में कुछ हैं डूबे, कुछ डूबे रंग में हैं। सुध बुध भुला के दिख रहे, कुछ डूबे भंग में हैं। कुछ हैं बहुत नशे में, गाड़ी चला रहे हैं। ना जाने कितने घर के दिए बुझा रहे हैं। त्यौहार यह मिलन का, फिर क्यों बिछड़ रहे हैं? कुछ आड...