बंटवारा
**बंटवारा**
सुना है उनका, बंटवारा हो गया।
घर बंट गया, खेत बंट गए,
धन बंट गया, भाई बंट गए।
सबका अपना, अलग अलग,
रहबसर,अलग रहगुजर हो गया।
मां बंट गई, बाप बंट गया,
बंट गई, जिम्मेदारियां भी।
खून को, बांटे कोई क्या,
पर रिश्तों का, सामां बंट गया।
बंटवारा ये क्या ,सिर्फ धन का है,
या बंटवारा, ये मन का भी है?
खेल तो सारा, मन का समझो,
बंटवारा ये केवल, मन का ही है।
मन जो मिला था,सब एक थे तब,
मन बंट गया,तो सब बंट गए अब।
स्वार्थ सारा, इस मन का ही है,
मन क्यूं इतना, आवारा हो गया।
कौन किसके, मन पे भारी,
किसमे कितनी, समझदारी।
खेल जीवन, भर का है ये,
मन का ही, और मन से है ये।
बंटती जमीन, न बंटता चमन है,
सागर बंटे ना, बंटता गगन है।
मन तो हमारा, सागर से भी गहरा,
बोलो फिर कैसे, बंटता ये मन है।
लेखा जोखा इसका,बाद मे मिलेगा,
क्या क्या मिला,और क्या खो गया।
मन को अगर, साध लो तो समझो,
माया का यह खेल, वहीं रुक गया।
✍️ विरेन्द्र शर्मा
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