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माँ की रचना

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  माँ की रचना ईश्वर ने प्रेम बांटने के लिए की माँ की रचना। कौन था वो जिसने बिगाड़ दी माँ की संरचना।। धरती, गाय, स्त्री सबको माँ की रचना माना गया है। फिर क्यों यह पाप? गौ-हत्या और बेटी-बहु को मारा गया है।। माँ की रचना के साथ प्रेम, एकता, परिवार बनाया गया है। फिर क्यों माँ के रहते ही, स्त्री के मन में डर और मानसिक तनाव बढ़ाया गया है।। यदि आपकी माँ सम्मान, प्रेम और दया की पात्र है। याद रहे, मैं और मेरी माँ भी सम्मान, प्रेम और दया की पात्र हैं।। मैं और सिर्फ़ मैं का अभिमान करने वालों ने, बदल दी माँ की रचना। दुर्भाग्य, माँ होते हुए भी स्त्री ने खुद ही, बदल दी माँ की संरचना॥

शहीद

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  शहीद पद चिन्ह जिनके देश की सीमा बना रहे हैं। वो नाम क्यों इतिहास से छुपाए जा रहे हैं।। बर्फ, पहाड़, रेत, जंगल बड़ी तकलीफ है जहाँ। गाँव की मिट्टी छोड़कर फौजी रहता है वहाँ।। बीवी, बच्चे, माँ-बाप, बहन-भाई छूट जाते हैं। देश की रक्षा के ख़ातिर कई नाते टूट जाते हैं।। लरज़ते हाथ, राखी, बोझिल आँखें, राह तकती हैं। फोन पे आवाज़ "घल आओना" सवाल करती है।। कभी तो सलामत वो शरीर के साथ आ पाता है। कभी लिपटे तिरंगे में शरीर से पहले आ जाता है।। काश कि उसके चरणों को मैं पल-पल छूता होता। काश कि उसके चरणों का मैं काला जूता होता। ।

ख़याली लकीरें

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  *ख़याली लकीरें* ज़मीन, फिजाओं  और समंदर पर जो लकीरें दिखती नहीं खींच दी है  कुछ ख़ुदग़र्ज़ों ने अपनी ऊंची ऊंची  नाकों के लिए जिन्हें... न इंसान समझ में आया न इंसाफ  और न ही इंसानियत  बन गए है वो हुक्मरान  और सबब–ए–हैवानियत ये गुनाह है... चंद सिक्कों की लालच दे  इंसान को मशीन बनाना उसमें सोचने समझने की ताकत छीन  हर हुक्म पे कहलवाना यस सर और उसे कर देना खड़े उन खयाली लकीरों पर गुस्सा, गुरूर और दुश्मनी,  भरकर ग़ज़ब है... इस खयाली लकीरों के  इस तरफ कत्ल कत्ल है कातिल को सज़ा है  और उस पार का कत्ल  साहस है रुतबा है इनाम और चक्रों की रज़ा है अरे... हर कोई होता है  सुहाग, बाप या भाई किसी न किसी का  यह बात तो साफ है फिर ये कैसा इंसाफ है? - अनीस ‘इंसान’

परायों में अपनापन

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  परायों में अपनापन मेरे चेहरे की हँसी गायब हो जाती है, जब मैं ढूंढती हूँ परायों में अपनापन। आँखें नम हो जाती हैं याद करके, अपनों के साथ बिताया बचपन।। काम, जिम्मेदारी, ताने, नाराजगी, बदतमीजी सब मेरे हिस्से। ये है मेरी जबानी परायों में, अपनापन ढूंढने के किस्से।। जब सुखमयी फैसले और सुखी जीवन का, कारण मुझे मानते ही नहीं। मेरे आत्मसम्मान के हनन का, कारण जानते ही नहीं। तब मैं कहती हूँ कि, परायों में अपनापन है नहीं।। परायों में अपनापन ढूंढ कर, जीवन में कमी रह जाती है। दुर्भाग्य है मानव का, परायों में अपना ढूंढ कर, आंखों में नमी रह जाती है। ।

माँ का प्यार

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 ********** माँ का प्यार ********** अपने बच्चों पर माँ अपनी ममता यूं बरसाती है। मानो यह आकाश धरा पर, वर्षा की बूंदें बरसाता। अपना आंचल फैला कर के, ऐसे प्यार लुटाती है। मानो नदियों में पवित्र जल, बिना रुके ही बहता जाता। माँ छुटपन में ही बच्चों में, संस्कार भर देती है। मानो खाद जरूरी लेकर, बीज एक पौधा बन जाता। हर एक अवस्था पर ही माँ की, छाया सिर पर रहती है। मानो धरती का संबल ले, पौधा एक पेड़ बन जाता। लाड़ लड़ाती, डांट पिलाती, कभी प्यार से समझाती। मानो कि पूरी दुनिया की, पूरी दुनिया ही है माता। बच्चे का भी जहां वहीं तक, जहाँ जहाँ दिखती है माता। मानो माँ के आकर्षण से, बच्चा खुद ही खींचता आता। ********** स्वरचित मौलिक रचना अर्चना श्रीवास्तव कवयित्री नवा रायपुर, छत्तीसगढ़ **********

कल्पना के पंख

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 ┈┉┅━❀꧁꧂❀━┅┉ कल्पना के पंख ┈┉┅━❀꧁꧂❀━┅┉┈ तुमसे मिलकर, दिल मेरा, जाने कहाँ गुम हो गया, मानो कोई कल्पना के पंख लेकर उड़ चला। ज़िन्दगी बेरंग थी, तुम आ गए रंग आ गया, मानो अंधियारे को कोई चीरता रौशन दिया। चेहरे की मासूमियत, नटखट ये अंदाज ए बयां, मानो जैसे कि कन्हैया कर रहा अठखेलियां। ज़िन्दगी कागज़ है जिसपर तुमने दी निशानियां, मानो चित्रकार कोई करता चित्रकारियां। गौरवर्णी गाल पर एक श्यामवर्णी तिल धरा, मानो बर्फीली सतह पर अकड़ कर कोई खड़ा। गेसुओं के कोर पर पानी की बूंदों का धड़ा, मानो मंगलसूत्र कोई खास हीरों से जड़ा। देखते ही देखता मैं एकटक तुमको रहा, मानो एकदम से खज़ाना देख कोई हिल गया। नख हैं लंबे धारती हैं लंबी, कानी उंगलियां, मानो तीक्ष्ण हथियारों का ही ज़ख़ीरा मिल गया। हंसना, रोना, रूठना, और फिर झगड़ना, मानना, मानो कला का एक धनी किरदारों में डूबा पड़ा। तिरछी आंखों से कभी वो देखना मुझको तेरा, मानो तीरंदाज़ कोई हो निशाना ले रहा। जागती आंखों में भी केवल तुम्हारा अक्स सा, मानो कोई ख्वाब में ही हो हक़ीक़त जी रहा। प्रणय निवेदन मेरी जिद और दिल तुम्हारा पिघल रहा, मानो ...

रिश्ते

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 ********** रिश्ते ********** कुछ दर्द मिला, कुछ ज़ख्म मिले, कुछ अपनों के ही ताने। कुछ लोगों ने की साजिश तो, कुछ हमको लगे गिराने। कुछ लोगों ने हमसे दूरी, करने के किए बहाने। कुछ ने हमको बदनाम किया, कुछ लगे हमें ठुकराने। हमने जब उनसे पूछा तो, वो उल्टा लगे दबाने। क्यों सुनते नहीं हमारी वो, बस लगे हैं अपनी गाने। बतलाओ मैं ही पागल हूँ, या लोग हुए दीवाने। क्या हमसे उन्हें शिकायत है, क्या क्या शिकवे हैं जाने? हम फिर भी कतरन सिल सिल कर, रिश्तों को लगे बचाने। रिश्तों की कलियां चुन चुन कर, हम उनको लगे निभाने। ********** स्वरचित मौलिक रचना अर्चना श्रीवास्तव कवयित्री नवा रायपुर, छत्तीसगढ़ **********