संतोष
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मिट्टी के बरतन से खेलकर, मैं बड़ा खिलखिलाती थी। अपने प्यारे बचपन में, मैं बड़ा चहचहाती थी।। ना जाने मुझको क्या हो गया, मेरे पास अपने बहुत सारे, आकर्षित व ठोस बर्तन है, तब भी मन उदास व दिल में है संकोच। बहुत कुछ अपना है और चाहिए, ये सोचकर उदास मन और खत्म हुआ संतोष।। सहनशक्ति, मौन और भविष्य की चिंता ने, मेरे मन में बढ़ाया संकोच। इन बातो के बीच में मरता रह गया, मेरे मन का संतोष।। खेलना, खिलखिलाकर जोर से हँसना और अपनों के संग खुश रहना, अदांज बन जाए। आ जाओ सब मिलकर, एक दूसरे का, बचपन लौटाएं।।