उम्मीद की चिंगारी
स्त्री के चेहरे को मुरझा देती है,
अपने पति की दी हुई,
उम्मीद की चिंगारी।
ऐसा मन बन जाता है,
जैसे दीया की चिंगारी।
कितनी बार क्रोध करे और रोए स्त्री
यही तो होता है हर बारी।।
स्त्री के चेहरे को मुरझा देती है,
उम्मीद की चिंगारी।
स्त्री बार बार बार संभलती
और मुस्कुराते हुए सोचती है,
कभी ना कभी आयेगी हमारी बारी।
स्त्री के चेहरे को मुरझा देती है,
उम्मीद की चिंगारी।।
स्त्री शांत हो जाती है,
फिर अपने आत्मसम्मान को,
वापिस पाने की,
करती है तैयारी।
तब पुरुष,
उपहास करते हुए कहते है,
शायद अब तुम्हे,
जरूरत नहीं है हमारी।।
ऐसा पुरुष को,
इसलिये लगता है,
क्योंकि अब स्त्री के चेहरे को,
नहीं मुरझा पाती,
उम्मीद की चिंगारी।
कलम की लिखावट,
तकदीर की बनावट,
चेहरे की घबराहट को समेटती स्त्री,
करती है अपने निर्माण की तैयारी।
अब कहाँ मुरझा पाती है,
"मुस्कान" को,
उम्मीद की चिंगारी।।
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