लघुकथा (चोर)


रविवार होने के कारण आज देर तक सोया रहा क्योंकि मेरे जैसे नौकरीपेशा व्यक्ति के लिए रविवार ही अंधे की लाठी होता है। छह दिन तो अंधेरे मुँह उठकर तैयार होकर सिर पर पाँव रखकर ऑफिस भागना पड़ता है जहाँ बॉस और सीनियर नाक में दम किए रहते हैं परन्तु एक दिन मैं घोड़े बेच कर सोता हूँ। यह रविवार भी चार दिन की चांदनी की तरह कब बीत जाता है पता ही नहीं चलता। यह रविवार भी कुछ ऐसा ही था।


मैं अपने बिस्तर पर पड़ा चैन की बंशी बजा रहा था कि अचानक बाहर के शोर से मेरे रंग में भंग पड़ गया और मैने अक्ल के घोड़े दौड़ाने शुरू कर दिए। जब किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँचा तो उधेड़बुन में मैं घर से बाहर आ गया। मैंने देखा कि सामने एक बारह तेरह वर्ष का लड़का है जिसके चेहरे पर हवाइयां उड़ रही है और कुछ लोगों की भीड़ उसकी गर्दन पर सवार थी फिर भी वह लड़का भीड़ के सामने घुटने नहीं टेक रहा था।


मैंने जिज्ञासावश घटना के बारे में जानना चाहा तो भीड़ में से किसी व्यक्ति ने बताया कि यह लड़का चोर है और यह लाला जी की दुकान से पाँच सौ चालीस रुपए चुरा कर नौ दो ग्यारह होना चाहता था परन्तु हमने मिल कर इसे पकड़ लिया। उस व्यक्ति ने आगे कहा कि देखो इसके दूध के दाँत अभी टूटे भी नहीं हैं और चला है चोरी करने, आज तो मार मार कर इसकी नानी याद दिला देंगे फिर यह लड़का ज़िन्दगी में दुबारा चोरी नहीं करेगा। तभी लाला जी का नौकर भागता हुआ आया और भीड़ से चिल्लाते हुए कहा कि उस लड़के को मत मारो लाला जी के पैसे उनकी दुकान पर ही मिल गए हैं लेकिन तब तक भीड़ ने उस लड़के के अंजर पंजर तक ढीले कर दिए थे। मैंने उस लड़के को सहारा देकर उठाया।


उस लड़के ने केवल मुझसे यही कहा कि साहब मैंने कोई चोरी नहीं की, मैं गरीब ज़रूर हूँ पर ईमान का पक्का हूँ लेकिन ये भीड़ कान की कच्ची है। अब मैं उस भीड़ से कुछ नहीं कहना चाहता था, भीड़ की अक्ल पर पत्थर पड़े थे और भीड़ को कुछ कहना या समझाना अंधे को चिराग दिखाना था। मैं अच्छी तरह समझ चुका था कि कुछ भी कहने या करने से पहले सच्चाई जाननी चाहिए और अपने विवेक से निर्णय लेना चाहिए।

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