पिंडदान

 

पिंडदान


मैं एक हूं 

और होना चाहता हूं

एक से दो

जैसे टूटती एक कोशिका

और टूट कर हो जाती है

एक से दो


लेकिन, 

बस ऐसे ही नहीं हो जाती 

एक कोशिका 

एक से दो 


पहले समाहित करती है 

खुद में अनेक एक 

भोजन के रूप में

और जब भर जाता है पेट

पा लेती है पूर्णता 

आकार की

उसमें निहित पूर्णांश

प्रेरित करता है उसे 

अस्तित्व के प्रयोजनार्थ 


कि आगे उसे निभानी है 

समग्र व्यवस्था में भागीदारी

और उस व्यवस्था के लिए 

उसे हो जाना है

एक से दो

और वो हो ही जाती है

एक से दो


हां ऐसे ही मैं भी

हो जाना चाहता हूं

एक से दो


कोशिकाओं से बना

ये पिंड, ये शरीर  

तो हो ही जाता है

एक से दो

हर बाप का 

या हर मां का

पर ‘वह’ नहीं हो पाता

एक से दो


जैसे मैं भी नहीं हो पाया

बाप हो कर भी 

एक से दो

और न कभी हो पाऊंगा 

शरीर के माध्यम से


क्योंकि

मैं शरीर नहीं

मैं, मैं हूं

जो सच्ची और सही समझ से, 

पूर्ण शिक्षा से और 

पूर्ण शिक्षक से होता है 

एक से दो


वरना 

सिर्फ होते रहते हैं

पिंड से पिंड 

एक से दो

नहीं हो पाता है

इंसान से दूसरा इंसान,

होता रहता है

समय दर समय

पिंडदान


– अनीस ख़ान ‘इंसान’

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