ख़याली लकीरें
*ख़याली लकीरें*
ज़मीन, फिजाओं
और समंदर पर
जो लकीरें दिखती नहीं
खींच दी है
कुछ ख़ुदग़र्ज़ों ने
अपनी ऊंची ऊंची
नाकों के लिए
जिन्हें...
न इंसान समझ में आया
न इंसाफ
और न ही इंसानियत
बन गए है वो हुक्मरान
और सबब–ए–हैवानियत
ये गुनाह है...
चंद सिक्कों की लालच दे
इंसान को मशीन बनाना
उसमें सोचने समझने की
ताकत छीन
हर हुक्म पे कहलवाना
यस सर
और उसे कर देना खड़े
उन खयाली लकीरों पर
गुस्सा, गुरूर और दुश्मनी,
भरकर
ग़ज़ब है...
इस खयाली लकीरों के
इस तरफ कत्ल कत्ल है
कातिल को सज़ा है
और उस पार का कत्ल
साहस है रुतबा है
इनाम और चक्रों की रज़ा है
अरे...
हर कोई होता है
सुहाग, बाप या भाई
किसी न किसी का
यह बात तो साफ है
फिर ये कैसा इंसाफ है?
- अनीस ‘इंसान’
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें