संदेश

नवंबर, 2023 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

देवदूतों को शुक्रिया

चित्र
कहानी सत्रह दिन सुरंग मे फंसे मजदूरों की है। सिसकियां उनके परिवार की और जिम्मेदारी के कारण घर से दूर उन मजबूरों की है।। इकतालिस जान के साथ इकतालिस परिवार बसे थे। टनल मे सुरंग धंसने की वजह से ये मजदूर फंसे थे।। भारत देश के देवदूतों ने हार नही मानी। अपनी बुद्धि से बचाई उन्होंने इकतालिस जिन्दगानी।। उत्तराखण्ड में 12 नवम्बर 2023 है को वो मजदूर कहां जानते थे कि ऐसा हो जायेगा। देवदूतों को नमन व बारम्बार शुक्रिया अब ये मजदूर उनकी कृपा से अपने घर पहुंच पायेगा।।

अक्सर खामोश लब हो तो आंखें जरा सुन सको तो कुछ बोलती हैं।

चित्र
  अक्सर खामोश लब हो तो आंखें जरा सुन सको तो कुछ बोलती हैं। आंखों को गहराई से गर पढ़ो तो सुन "राम" वो राज-ए-दिल खोलती हैं।। 1 मीठी है बोली, गुड़ की डली है, बातों में उनकी मिश्री घुली है। बचना तू ऐ "राम" मीठी जुबां से मीठी जुबां ही ज़हर घोलती है।। 2 जरा सोच लो और थोड़ा समझ लो तभी "राम" दुनिया से कुछ बात बोलो। तू अनजान है जानता ही नहीं है कि दुनिया जुबां से तुझे तोलती है।। 3 चारों तरफ झूठ-ओ-गारत का मेला खड़ा है यहां सिर्फ सच ही अकेला। तू ऐ "राम" सच पर कहां तक चलेगा कि तूती यहां झूठ की बोलती है।।

वो जो इक शर्त थी वहशत की, उठा दी गई क्या।

चित्र
  वो जो इक शर्त थी वहशत की, उठा दी गई क्या | चेहरे से बेशर्म आँखें, झूठी हँसी, हटा दी गई क्या |1|  वो नजरें जो देखती थी, दरिन्दगी और वहशत से, उन नजरों को उनकी औकात, दिखा दी गई क्या |2|  वो जो हमारे बीच पर्दा, पर्दा सा कायम था कभी, हमारे बीच की वो दीवार, कहाँ है, गिरा दी गई क्या |3| उन गरीब, मज़बूर, मजदूरों की चीखें अब नही आती, कहाँ है वो, उनकी बेबस आवाज़, दबा दी गई क्या |4| अब नही दिखती सच्चाई और ईमानदारी की तस्वीरें, वो तस्वीरें, जरूरतों की लहर में, बहा दी गई क्या |5| ऐ “राम” इन्सानियत की तलाश है, मिलती ही नही, क्यों, दुनिया की सारी इन्सानियत, जला दी गई क्या |6| 

मैं क्यों हूँ तमाशा औ वक़्त तमाशाई है।

चित्र
  ऐ जिंदगी, बता, ये कैसी पशोपेश है, मैं क्यों हूँ तमाशा औ वक़्त तमाशाई है। दुनिया तमाशबीन है, तू खेल बन गयी, अरमान दिल का एक-एक धराशाई है। किस्मत कहे है कुछ लकीर-ए-दस्त कुछ कहे, इससे अलहदा मेहनत-परस्त कुछ कहे, ख्वाबों के महल में कोई तारीक है लिए, और हक़ीकत की झोपड़ी में रोशनाई है। ऐ जिंदगी, बता, ये कैसी पशोपेश है, मैं क्यों हूँ तमाशा औ वक़्त तमाशाई है। मैं हूँ बशर, हुआ हूँ कई बार दर-ब-दर, बेशक़ है दूर मुझसे मेरी मंज़िल औ डगर, जारी है बदस्तूर फिर भी मंज़िल-ए-सफ़र, मैं देखता हूँ वक्त कितना आतताई है। ऐ जिंदगी, बता, ये कैसी पशोपेश हैं, मैं क्यों हूँ तमाशा औ वक़्त तमाशाई है। नाशुक्र ना हो "राम" कभी आशनाई में, ना डूब किसी की वफ़ा की बेवफ़ाई में, ना हार मान ज़िंदगी की इस लड़ाई में, वर्ना तेरी खातिर तो सिर्फ़ जगहंसाई है। ऐ जिंदगी, बता, ये कैसी पशोपेश है, मैं क्यों हूँ तमाशा औ वक़्त तमाशाई है।

जिस वक़्त हुआ इशारा मेरे हुज़ूर का।

चित्र
किराये के मकाँ पर, इन्साँ ने खड़ा कर डाला, महल गुरूर का। हो जायेगा ज़मींदोज़, उसी वक़्त,, जिस वक़्त हुआ इशारा, मेरे हुज़ूर का। बदनिगाही, बदबयानी, बदमिज़ाजी, बदतमीज़ी छोड़ कर, तू खौफ़ खा, कब न जाने, किस घडी, किस मोड़ पर, किसको मिले दंड कैसा, इस कसूर का। सियासत खेल कर, वहशत, जलालत बाँट कर, मिलेगा क्या भला तुमको, मिलेंगी लानतें, रह जाएंगे ये हाथ ख़ाली ही, नशा टूटेगा जब तुम्हारा दौलत के सुरुर का। फ़लक पर भी वही काबिज़, जर्मी पर भी वही काबिज़, रहेंगे हो कर एक दिन, बशर्ते शर्त है इतनी सी ही इंसान की खातिर, कि वो दर्द-ए-बयाँ समझे किसी मज़बूर का। आशिक़, दीवाना, शायर न जाने क्या-क्या नाम, ईनाम में देकर, बदनाम कर डाला, तो फिर क्यों पूछता है "राम" तू अपनी बेख्याली में, कि क्या ईनाम दूँ, तुझको तेरे फितूर का।

जिसे हम दिवाली कहते हैं।

चित्र
जिसे हम दिवाली कहते हैं।      ****************** उत्सव है प्रकाश का, सत्य और विश्वास का, हर्ष और उल्लास का, श्रद्धा का और अरदास का, जिसे हम दिवाली कहते हैं। सदियों पुरातन पर्व है, हर भारतीय का गर्व है, यह सनातनी त्यौहार है, संस्कृति का आधार है, जिसे हम दिवाली कहते हैं। पाप का कर कर शमन, प्रभु राम का हुआ आगमन, स्मरण में उनके सदा, मनाते हैं हम दिए जला, जिसे हम दिवाली कहते हैं। विनती है गणाधीश से, माँ लक्ष्मी के आशीष से, सम्मान दें, सम्मान लें, धन लाभ सहित सब जान लें, जिसे हम दिवाली कहते हैं। **********************

दो बूंद गिरी मेरी आँखों से, मैं अश्क कहूँ या पानी।

चित्र
दो बूंद गिरी मेरी आँखों से, मैं अश्क कहूँ या पानी। कुछ दर्द है मेरे सीने में, उस दर्द की है ये निशानी। समझाया बहुत इस दिल को था, बर्बाद इसे होना था हुआ, दिल तो आवारा बादल है करे कौन इसकी निगरानी। कुछ दर्द है मेरे सीने में, उस दर्द की है ये निशानी। दिल टूट गया, बाकि न रहा, अरमान कोई भी जीने का, शिकवा भी करें तो किससे करें, खुद की है ये नाफ़रमानी। कुछ दर्द है मेरे सीने में, उस दर्द की है ये निशानी। गुमनाम हुए, बदनाम हुए, हम प्यार में पागल हो बैठे, हमें देख ज़माना कहता है, है प्यार बड़ी नादानी। कुछ दर्द है मेरे सीने में, उस दर्द की है ये निशानी।

उठने लगा जनाज़ा इन्सानियत का यारों।

चित्र
  उठने लगा जनाज़ा इन्सानियत का यारों। चारों तरफ नज़ारा हैवानियत का यारों। सस्ती है ज़िन्दगी, सस्ता है आदमी, अब मोल बढ़ गया है मरहुमियत का यारों। उठने लगा जनाज़ा इन्सानियत का यारों। इन्सान बन गया है वहशी और दरिंदा, गुज़रा है अब ज़माना मासूमियत का यारों। उठने लगा जनाज़ा इन्सानियत का यारों। अहसास मर गए हैं, ज़ज्बात मर गए, अब दौर चल रहा है बेईमानियत का यारों। उठने लगा जनाज़ा इन्सानियत का यारों। अब "राम" कह रहा है कैसे रहूँ मै जिंदा, लौट आए फिर ज़माना रूमानियत का यारों। उठने लगा जनाज़ा इन्सानियत का यारों।

फिर भी क्यों लगता है ऐसा कष्ट मेरा सबसे भारी।

चित्र
  तेरे हृदय में दावानल है, मेरे हृदय में चिंगारी। फिर भी क्यों लगता है ऐसा कष्ट मेरा सबसे भारी। परमेश्वर ने एक समान ही सबको नैमत दी लेकिन, रात वही है, किसी की रौशन और किसी की अंधियारी। फिर भी क्यों लगता है ऐसा कष्ट मेरा सबसे भारी। फल कर्मों का ही मिलता है, इन्सान को इस धरती पर, कोई दुखी है निज कर्मों से, कोई उसका आभारी। फिर भी क्यों लगता है ऐसा कष्ट मेरा सबसे भारी। हर इन्सान का अलग नजरिया इस जीवन के बारे में, कोई है आध्यात्म में खोया, कोई यहाँ पर संसारी। फिर भी क्यों लगता है ऐसा कष्ट मेरा सबसे भारी।

जिंदगी की जलालत औ बेआबरू।

चित्र
जिंदगी की जलालत औ बेआबरू। देखकर मैं हुआ, खुद से ही जर्द-रू।। मैने खुद को, तलाशा था खुद में कहीं। अब नया अक्स मेरा, मेरे रूबरू।। दिल में थोड़ा सा डर था, कहीं फिक्र सा। क्योंकि चारों तरफ था, मेरा जिक्र सा।। ऐसे बेदर्द, गमगीन, माहौल में। पूछता था ये दिल, मुझसे मैं क्या करूं।। जिंदगी की जलालत औ बेआबरू। देखकर मैं हुआ, खुद से ही जर्द-रू।। मैंने खुद को सम्हाला है, मुश्किल से पर। अब मैं तैयार हूं, पीने को हर जहर।। अब न कोने में छिपकर के बैठूंगा मैं। मैं खबरदार हूं, बेवजह क्यूं डरूं।। जिंदगी की जलालत औ बेआबरू। देखकर मैं हुआ, खुद से ही जर्द-रू।।

पांडिचेरी विलय दिवस

चित्र
पांडिचेरी विलय दिवस की, शुभेच्छा देता सहर्ष मैं। एक नवंबर शुभ दिन था वह, उन्नीस सौ चौवन के वर्ष में।। पुलकित पांडिचेरी वासी, जन से जन का संग बना था। हो स्वतंत्र पांडिचेरी, भारत भू का फिर अंग बना था।। लौट चले उपनिवेशवादी, चले फ्रांसीसी अपने घर को। वर्ष तीन सौ जिए जो डर डर, जीत गए वो अपने डर को।। तोड़ गुलामी की जंजीरें, हर्ष और उल्लास मनाया। और स्वतंत्र भारत का घर घर, शान तिरंगा लहराया।। पांडिचेरी विलय दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं