जिस वक़्त हुआ इशारा मेरे हुज़ूर का।





किराये के मकाँ पर,
इन्साँ ने खड़ा कर डाला,
महल गुरूर का।
हो जायेगा ज़मींदोज़,
उसी वक़्त,,
जिस वक़्त हुआ इशारा,
मेरे हुज़ूर का।

बदनिगाही, बदबयानी,
बदमिज़ाजी, बदतमीज़ी
छोड़ कर,
तू खौफ़ खा,
कब न जाने, किस घडी,
किस मोड़ पर, किसको मिले
दंड कैसा,
इस कसूर का।

सियासत खेल कर,
वहशत, जलालत बाँट कर,
मिलेगा क्या भला तुमको,
मिलेंगी लानतें, रह जाएंगे
ये हाथ ख़ाली ही,
नशा टूटेगा जब
तुम्हारा दौलत के सुरुर का।

फ़लक पर भी वही काबिज़,
जर्मी पर भी वही काबिज़,
रहेंगे हो कर एक दिन,
बशर्ते शर्त है इतनी सी ही
इंसान की खातिर,
कि वो दर्द-ए-बयाँ समझे
किसी मज़बूर का।

आशिक़, दीवाना,
शायर न जाने क्या-क्या नाम,
ईनाम में देकर,
बदनाम कर डाला,
तो फिर क्यों पूछता है "राम"
तू अपनी बेख्याली में,
कि क्या ईनाम दूँ,
तुझको तेरे फितूर का।

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