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जैसे कोई कर्ज हो उमर भर ठहरा

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एक गुनाह कुछ यूं हमारे सर पर ठहरा  जैसे कोई कर्ज हो उमर भर ठहरा चला था ख़ाबों में देखे हर रास्ते पर मैं   जनम का अंधा मैं हर रास्ते पे जा कर ठहरा गया है जब से वो शक़्स जिसको हम वालिद कहते थे  हमारी आँखों में तब से है कोई समुंदर ठहरा उदासी का मौसम जिस बस्ती में छाया हो  समझो वही एक कोने में मेरा घर ठहरा लेकर आए कभी लिफ़ाफ़े में बंद एक खुश खबरी  कहां मुकद्दर में मेरे ऐसा कोई नामाबर ठहरा इश्क में होते हुए भी साथ था मैं दूसरी के भी  कैसे कह दूं की किसी का भी मैं उम्र भर ठहरा ये शगुफ़ नहीं है कहानी है ज़ीश्त की मेरी  फकत एक यही मुझमें अब तलक हुनर ठहरा "जदीद" ऐसी ग़ज़ल कहते हो कि मालूम होता है  अगले जमाने का तुमको कोई हो डर ठहरा Insta ID - @jadeed_nazmkaar Link - https://www.instagram.com/jadeed_nazmkaar?utm_source=qr&igsh=NzBud2hxNzhkOHo5

शून्य

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मैं शून्य क्यों मानती हूँ अपने आप को। आओ बताऊं कविता में अपने इतिहास को।। मेरी आन, बान, शान भारत मेरा देश है। जन्म स्थान बिहार जो मेरे लिए विशेष है।। 94,163 वर्ग किमी क्षेत्रफल वाले बिहार में मैं अनीता शून्य हूँ। भारत के 2.86 प्रतिशत मानवों में मैं शून्य हूँ।। राज्यों के क्षेत्रफल में 12 वाँ इसका स्थान है। उत्तरी दिशा नेपाल से सटे मधुबनी के गांव अरेर में मेरा जहान है।। 173 फिट 53 मीटर समुद्र से बिहार की ऊंचाई है। लम्बाई 345 किमी और 483 किमी. चौड़ाई है।। शून्य से कम कुछ नहीं इसलिए खुद को मैं जीरो मानती हूँ। जीरो से हीरो का सफर तय निश्चित होगा ऐसा मैं मानती हूँ।।

चुभे क्यूं तीर सबको मेरी आवाज के

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चुभे क्यूं तीर सबको मेरी आवाज के  नाखून हैं क्या ये किसी चील बाज के गर हम में शोखी है नहीं तो हम चाहते भी ये है कि हमसे आके मिले लोग हों जो हममिज़ाज के मेरे मकां में कोई भी इंसान नहीं है पर  दो चार बोरे पड़े हुए है यूं ही अनाज के नगदी नहीं है जेब में मगर फोन पे में है  यूं ही कुछ ढाई सौ रुपए वो भी ब्याज के इतनी नादारी है की अब कैसे जुगाड़े हम  बिस्तर पर पड़ी मां के लिए पैसे इलाज के होते थे पहले लाखों में दो चार ही शायर  दो लाइन लिख के बच्चे बने हैं शायर आज के आखिर वो भी लटक गया एक पंखे से "जदीद"  सह नहीं पाया वो भी ताने समाज के Insta ID - @jadeed_nazmkaar Link - https://www.instagram.com/jadeed_nazmkaar?utm_source=qr&igsh=NzBud2hxNzhkOHo5

अभिभावक

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  प्रिय अभिभावक, आप वो सड़क हैं जो खुद एक जगह रहकर, सबको मंजिल तक पहुंचाते हैं। मेरे जीवन में, वो मिठास है आप, जो दिखते नहीं पर मंजिल की और प्रेम से ले पाते हैं। आपका संयम और संघर्ष, हम जैसों को, वृक्ष में लिपटे, बेल की तरह उठाते हैं। आप एक जगह रहकर, हमें मंजिल तक पहुंचाते हैं।। आप हमारे बीच में रहकर, हमें उठना, बढ़ना, संघर्ष व मर्यादा के साथ मेहनत की सीढ़ी पर चढ़ाते हैं। सड़क की तरह एक जगह रहकर, हमें मंजिल तक पहुंचाते हैं।। मैं अनीता झा अपने अभिभावक की आभारी हूँ। आपकी कृपा से शिक्षित हूँ, मैं बारम्बार आभारी हूँ।

मेला

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अपनो की भीड़ में, तेरा मन अकेला है। कैसे तुझे बताऊं जीवन में, सुख कम दुख का मेला है।। कुछ क्षण आए होगें तेरे जीवन में, जिसे तेरे मन ने रो रो के झेला है। तेरी आँखें नम होकर कह रही थी, तू अपनों की भीड़ में अकेला है।। तेरे पास भी मेरे जैसे, नाम के रिश्ते होगें। बस मन को इतना समझा, इनमें कुछ फरिश्ते होंगे।। तुझे प्यार मिला तो, तेरे भाव जाग गये। नम आँखें बता रही थी, दिल के घाव भाग गये।।

देखा नहीं गया

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खुद के अंदर खुद का मरना देखा नहीं गया ख्वाबों का यूं मातम करना देखा नहीं गया हम आए थे शहर तुम्हारे कल तुमसे मिलने मिले बगैर ही हिजरत करना देखा नहीं गया कैसी कैसी चाहत मेरी तुमसे हैं इश्क में हर चाहत का रोज बिखरना देखा नहीं गया कोई न कोई नया घाव जिस्म को हर एक दिन है रोजाना एक ज़ख्म निखरना देखा नहीं गया कभी कभी तो कुछ थोड़ी खुशियां घर आती हैं अब इस तरीके घर संवरना देखा नहीं गया धीरे धीरे एक एक सांसें रोज घट रही बूंद बूंद का दरिया भरना देखा नहीं गया चाट गई है सुकून नींद मेरी वो एक सूरत इन हालों दिन रात गुजरना देखा नहीं गया भीड़ में मेरा चर्चा "जदीद" अब तो रहने दो मुझसे यूं अजमत का उतरना देखा नहीं गया Insta ID - @jadeed_nazmkaar Link - https://www.instagram.com/jadeed_nazmkaar?utm_source=qr&igsh=NzBud2hxNzhkOHo5

समय

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  हूं घिरा मैं कांटों से हर ओर से जैसे बुरा चलता मेरा समय है अभी छुपता फिरता हूं ना जाने क्यों आज कल किसका खाता मुझे ऐसा भय है अभी ना सहारा कोई मेरा दिखता यहां किनारा भी कश्ती को मिल न रहा जब से खोया उन्हें है तो ऐसा लगे कि खोने को अब मेरे  कुछ न रहा विफलताओं से पस्त ये जीवन मेरा ना कविता को मिलती ही लय है अभी हूं घिरा मैं कांटों से हर ओर से जैसे बुरा चलता मेरा समय है अभी सारे सपने मेरे अब व्यर्थ हुए पसरे चहुं ओर निराशा के अर्थ हुए जतन खुद के लिए तो सारे किए पर बेवश थे हम, असमर्थ हुए कल से मैं तो अभी हूं परिचित कहां हो रहा मेरा जीवन क्षय है अभी हूं घिरा मैं कांटों से हर ओर से जैसे बुरा चलता मेरा समय है अभी अब तृष्णा कहूं या अपेक्षा मेरी अधिकार कहूं या  कि इक्षा मेरी प्राप्त वैसे तो सम्पूर्ण कुछ भी नही ये जीवन भी जैसे कोई भिक्षा मिली कष्ट सहना हैं और फिर चले जाना है अंत मेरा लगे जैसे तय है अभी हूं घिरा मैं कांटों से हर ओर से जैसे बुरा चलता मेरा समय है अभी छुपता फिरता हूं ना जाने क्यों आज कल किसका खाता मुझे ऐसा भय है अभी