पापा की परी
बातों से कानों में मधुरस भरती हो।
छोटी सी चिड़िया हो, जो पर फैलाए,
उड़ती रहती क्यों ना कभी ठहरती हो।
रोज बहाने, नये-पुराने होठों पर,
नई कहानी नित-नित ही तुम गढ़ती हो।
करता हूं जब बातें पढ़ने-लिखने की,
पढ़ने से तो ज्यादा कहीं झगड़ती हो।
जब से पैदा हुई, नापता ऊंचाई,
दिन दूनी तुम रात चौगुनी बढ़ती हो।
मनपसंद की जब न कोई चीज़ मिले,
ज़िद करती हो कभी, कभी तुम लड़ती हो।
कभी लगे जो चोट मुझे, मैं सहलाऊं,
गोल बना कपड़े का, फूंक, रगड़ती हो।
अगर दिखूं ना कभी तुम्हे कुछ दिन तक मैं,
जाने किस अनजाने भय से डरती हो।
कभी तुम्हारी टांग खींच लूं थोड़ी सी,
बुरा मान जाती हो और बिगड़ती हो।
अगर ध्यान ना कोई दे और छूट मिले,
तो तुम दिनभर घर में दंगल करती हो।
कभी देखती मम्मी को मेकअप करते,
क्रीम पाउडर ज्यादा लगा संवरती हो।
कभी शरारत करने पर जब डांट पड़े,
खुद ही रोनी सूरत बना अकड़ती हो।
अगर करे तारीफ जरा सी कोई भी,
तुरत चने के झाड़ के ऊपर चढ़ती हो।
अपनी सारी करतूतों की लिस्ट बना,
सब गलती छोटे भाई पर मढ़ती हो।
दुखी देखकर पापा को रोती हो तुम,
पापा पर तुम कितनी जान छिड़कती हो।
हाथ लगा कर कहे कोई "पापा मेरे",
दांत भींच कर उसके पीछे पड़ती हो।
ईश्वर का वरदान हो तुम मेरी खातिर,
घर से निकलूं उंगली तुरत पकड़ती हो।
मैं "पापा" तुम मेरी "परी" बिटिया रानी,
जहां देखता वहीं दिखाई पड़ती हो।
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