भारतेन्दु हरिश्चन्द्र... एक युग प्रवर्तक कवि एवं साहित्यकार जिन्होनें हिन्दी साहित्य को एक नवीन दिशा प्रदान की। (जन्मदिवस पर विशेष)

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र... एक युग प्रवर्तक कवि एवं साहित्यकार जिन्होनें हिन्दी साहित्य को एक नवीन दिशा प्रदान की। (जन्मदिवस पर विशेष)

 


भारतेन्दु जी का समय हिन्दी गद्य साहित्य के आविर्भाव का काल था। भारतेन्द्र जी ने हिन्दी में नाटक, निबंध, कहानी तथा जीवनी आदि विविध गद्य विधाओं को जन्म दिया। उन्होने स्वयं लिखा और दूसरों को लिखने के लिए प्रेरित किया। उनके मित्रों ने भी हिंदी भाषा के विकास में उन्हें सहयोग दिया। अनेक नाटक, निबन्ध, उपन्यास तथा कहानियाँ इस काल में लिखे गये। विविध गद्य विधाओं से हिन्दी साहित्य का भण्डार भरा गया। उनके मित्रों और सहयोगियों का एक बड़ा समुदाय बन गया जिसे भारतेन्दु-मण्डल" के नाम से जाना गया। यही कारण है कि भारतेन्दु जी को हिन्दी गद्य का जन्मदाता भी कहा जाता है।

 

तो आइए जानते हैं हिन्दी साहित्य के पुरोधा भारतेन्दु हरिश्चन्द्र जी के बारे मेंl

 


जीवन परिचय

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का जन्म भाद्रपद शुक्ल 5 सं०1907 वि० (9 सितम्बर सन्‌ 1850 ई०) में काशी के एक वैश्य परिवार में हुआ। इनके पिता गोपालचन्द्र (उपनाम गिरधार दास) बड़े काव्य-रसिक व्यक्ति थे। भारतेन्दु जी जन्मजात कवि थे। पाँच वर्ष की आयु में ही उन्होंने निम्नलिखित दोहा बनाकर अपने पिता से सुकवि बनने का आशीर्वाद प्राप्त कियाl

ले ब्योढा ठाढ़े भये, श्री अनिरुद्ध सुजान।

बाणासुर, की सैन्य को, हनन लगे 'बलवान्‌॥

उन्होंने घर पर ही हिंदी, संस्कृत, अंग्रेजी तथा बंगला का अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लिया था। 18 वर्ष की अवस्था में ही उन्होंने साहित्य रचना आरंभ कर दी थी। भारतेन्दु जी दीन-दुःखियों की सेवा, देश-सेवा तथा साहित्य सेवा पर खूब खर्च करते थे। कई पुस्तकालयों और नाट्यशालाओं की भी इन्होंने स्थापना की और काफी व्यय करके उन्हें चलाया। धन को पानी की तरह बहाने के कारण जीवन का अन्तिम समय कष्ट में बिताना पड़ा। अंत में क्षय रोग से ग्रस्त होकर केवल 35 वर्ष की अल्पायु में सं०1942 वि० (सन्‌ 1885 ई०) में परलोकवासी हो गये।

 


साहित्यिक परिचय

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र हिन्दी साहित्य के महान उपासक थे। उन्होंने हिन्दी साहित्य जगत को वह प्रकाश दिया जिससे हिन्दी जगत अनन्त काल तक प्रकाशित रहेगा। भारतेन्दु बाबू की प्रतिभा बहुमुखी थी। हिन्दी भाषा से उन्हें अगाध स्नेह था। उनका विचार था

निज भाषा उन्‍नति अहै, सब उन्नति को मूल।

पै निज भाषा ज्ञान बिनु, मिटै न हिय को शूल।।

भारतेन्दु जी ने कविता राष्ट्रीय भावना, सामाजिक तथा देशोद्धार की पवित्र भावनाओं से सुसज्जित किया। दूसरी ओर उन्होंने गद्य का रूप स्थिर और हिन्दी गद्य साहित्य को विकास की ओर अग्रसर किया। उन्होंने एक ऐसी सर्वमान्य शैली का प्रयोग किया जो हिन्दी गद्य साहित्य के विकास के लिए सर्वथा उपयुक्त सिद्ध हुई। गद्य के क्षेत्र में ब्रजभाषा के स्थान पर खड़ी बोली की स्थापना भारतेन्दु जी का अत्यन्त महत्वपूर्ण कार्य था।

भारतेन्दु जी का समय हिन्दी गद्य साहित्य के आविर्भाव का काल था। भारतेन्द्र जी ने हिन्दी में नाटक, निबंध, कहानी तथा जीवनी आदि विविध गद्य विधाओं को जन्म दिया। उन्होने स्वयं लिखा और दूसरों को लिखने के लिए प्रेरित किया। उनके मित्रों ने भी हिंदी भाषा के विकास में उन्हें सहयोग दिया। अनेक नाटक, निबन्ध, उपन्यास तथा कहानियाँ इस काल में लिखे गये। विविध गद्य विधाओं से हिन्दी साहित्य का भण्डार भरा गया। उनके मित्रों और सहयोगियों का एक बड़ा समुदाय बन गया जिसे भारतेन्दु-मण्डल" के नाम से जाना गया। यही कारण है कि भारतेन्दु जी को हिन्दी गद्य का जन्मदाता भी कहा जाता है।

 


भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की रचनाएं

रचनाएँ- भारतेन्दु जी ने अपनी थोड़ी आयु मे बहुत कुछ लिखा। उनकी प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैं।
(क) नाटक- सत्य हरिश्चन्द्र, चन्द्रावली,  भारतदुर्दशा, नीलदेवी, अन्धेरनगरी, बैदिकी हिंसा हिंसा न भवति, बिषस्य विषमौषधम, सती प्रताप, प्रेम योगिनी आदि।
(ख) अनूदित नाटक- मुद्राराक्षस, धनञ्जय-विजय, रत्नावली, कर्पुरमंजरी, विद्यासुन्दर, भारत-जननी, पाखण्ड-विडम्बन, दुर्लभ बन्धु आदि।
(ग) इतिहास ग्रन्थ- कश्मीर सुषमा, महाराष्ट्र देश का इतिहास, दिल्ली दरबार-दर्पण, अग्रवालों की उत्पत्ति, बादशाह दर्पण आदि।
(घ) निबन्ध तथा आख्यान- सुलोचना, मदालसा, लीलावती, परिहास-पंचक आदि।
(ड़) काव्य ग्रन्थ- प्रेम फुलवारी, प्रेमप्रलाप, विजयनी विजय, बैजयन्ती, भारत बीणा, सतसई श्रृंगार, प्रेमाश्रु वर्णन, माधुरी, प्रेम मालिका, प्रेम तरंग, प्रेम-सरोवर आदि।

 


भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की भाषा शैली

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने कविता में पूर्व प्रचलित ब्रजभाजा का ही प्रयोग किया किन्तु गद्य के क्षेत्र में उन्होंने खड़ी बोली को प्रतिष्ठित किया। इनकी गद्य भाषा के दो रूप है- सरल व्यावहारिक भाषा तथा शुद्ध खड़ी बोली हिन्दी। इनमें पहले प्रकार की भाषा से अरबी, फारसी तथा अंग्रेजी आदि के आम प्रचलित शब्दो का प्रयोग हुआ है जबकि दूसरे प्रकार की शुद्ध भाषा में संस्कृत के तत्सम तथा तदभव शब्दों को ही मुख्य रूप से स्थान दिया गया है। इनकी भाषा बड़ी प्रभावपूर्ण, सशक्त तथा प्रवाहशील है। मुहावरों और कहावतो के प्रयोग से भाषा सजीव हो उठी है।

भारतेन्दु जी को थोड़े समय में बहुत लिखना था। लिखे हुए को दोबारा पढ़ने के लिए उनके पास समय ही नहीं था। इस कारण उनकी भाषा में कहीं-कहीं व्याकरण सम्बन्धी त्रुटियाँ पायी जाती हैं। वास्तव में ये भाषा के धनी थे। अपने समय के सभी लेखकों में उनकी भाषा सबसे अधिक साफ-सुथरी तथा सुव्यवस्थित थी।

 


भारतेन्दु जी की गद्य-शैली के मुख्य रूप से चार रूप पाये जाते हैं।

1. परिचयात्मक शैली-भारतेन्दु जी की इतिहास तथा यात्रा वर्णन सम्बन्धी रचनाओं में परिचयात्मक शैली का प्रयोग हुआ है। इसमें वाक्य छोटे-छोटे तथा भाषा सरल है। मुहावरों और कहावतों का इस शैली में बहुत प्रयोग हुआ है।

2. विवेचनात्मक शैली- गम्भीर विषयों के विवेचन में इस शैली का प्रयोग किया गया है। इसमें वाक्य अपेक्षाकृत लम्बे तथा भाषा गम्भीर हो गयी है

3. भावात्मक-शैली- यह भारतेन्दु जी की प्रमुख शैली है। इसमें छोटे-छोटे वाक्य तथा सरस मुहावरेदार भाषा है। इस शैली में भारतेन्दु जी का कवि रूप मुखरित हो उठा है। जीवनी तथा ऐतिहासिक निबन्धों में यह शैली जहाँ-तहाँ दिखाई पड़ती है।

4. व्यंग्यात्मक-शैली- भारतेन्दु जी हिन्दी जगत के पहले व्यक्ति थे जिन्होंने यह अनुभव किया कि हास्य रस के मनोरंजक गद्य साहित्य का निर्माण भी समाज के लिए आवश्यक है और उसके बिना हिन्दी के गद्य साहित्य में रोचकता तथा स्थायिता नहीं आ सकती; अतः उन्होंने अपनी गद्य भाषा में हास्य और विनोद की पुट दी। व्यंग्य और आक्षेप के द्वारा उन्होंने समाजिक कुरीतियों और अन्ध-विश्वासों का उपहास किया

भारतेन्दु की प्रतिभा सर्वतोन्मुखी थी। उन्होंने युग की आवश्यकता तथा जनरुचि को ध्यान में रखते हुए अनेक प्रकार की साहित्य रचना की है। उनके काव्य में भावपक्ष और कलापक्ष, दोनों ही दृष्टि से उनका काव्य उच्च कोटि का है। उनके काव्य में मुख्य रूप से निम्नलिखित विशेषताएँ पायी जाती हैं-

भारतेन्दु जी ने अपनी काव्य रचना में निम्नलिखित चार प्रकार की शैलियां अपनायी हैंl

 1. भावात्मक शैली- प्रेम और भक्ति के पदों में इस शैली का प्रयोग पाया जाता है। इसमें दोहा, कवित्त और सवैया छन्दों का अधिक प्रयोग हुआ है।

2. अलंकृत-शैली- यह रीति काल की पूर्व प्रचलित शैली थी। इसमें उपमा, रूपक आदि अर्थालंकारों के साथ शब्दालंकारों द्वारा भाषा की सजावट पर भी ध्यान दिया जाता था। भारतेन्दु जी ने अपनी श्रृंगारिक कविताओं में इस शैली का प्रयोग किया है।

3. उद्बोधन शैली- देशप्रेम की कविताओं में उदबोधन शैली का प्रयोग हुआ है। इसमें सरल भाषा में जन-जागरण का सन्देश दिया गया है।

4. व्यग्यात्मक-शैली- इस शैली में भाषा मुहावरेदार है। भाषा में अभिव्यंजना-शक्ति अधिक मात्रा में है। समाज सुधार सम्बन्धी कविताओं में इसी शैली का प्रयोग हुआ है।


सारांश यह है कि भारतेन्दु हरिश्चन्द्र एक युग प्रवर्तक कवि थे। उन्होंने हिन्दी कविता को नवीन दिशा दी। भाषा, शैली और भाव, सभी दृष्टियों से उन्होंने एक क्रान्तिकारी युगद्रष्टा का काम किया। 


https://youtu.be/oKX78bm3kzA


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