पुस्तक का नाम-मुक्ति, लेखक-रामचन्द्र श्रीवास्तव

 

पुस्तक का नाम-मुक्ति


लेखक-रामचन्द्र श्रीवास्तव



आभार

मेरी यह प्रथम पुस्तक उन सभी लोगों को समर्पित है जिन्होंने मुझ पर विश्वास किया और मुझे निरंतर लिखते रहने के लिए प्रेरित कियाl मेरी यह पुस्तक उन सभी के प्रति भी समर्पित है जो मेरी आलोचना कर मेरे लेखन में सुधार कार्य के भागी रहेl मैं उन सभी का हार्दिक धन्यवाद एवं आभार प्रकट करते हुए यह पुस्तक उन्हें समर्पित करता हूँl



इस पुस्तक में आप पढेंगे-

प्रस्तावना
1.
उधेड़बुन
2.
पूर्व स्मृति
3.
मनहूस ख़बर
4.
पछतावा
5.
नई शुरुआत
6.
वो हादसा
7.
पूरक
8.
आत्मग्लानि
9.
इच्छापूर्ति
10.
पुनरावृत्ति
11.
मुक्ति


प्रस्तावना

यह पुस्तक एक कल्पनाशील कहानी पर आधारित हैl यह पुस्तक नायक के जीवन के विभिन्न पहलुओं के द्वारा पाठक को अपने साथ जोड़ने का प्रयास करती हैl वैसे तो यह पुस्तक पाठकों के मनोरंजन के लिए लिखी गई है परन्तु यह पुस्तक मानवीय और नैतिक मूल्यों का समर्थन करते हुए शिक्षाप्रद भी हो सकती है जो कि पूरी तरह से पाठकों के नजरिये एवं आत्म-विश्लेषण पर आधारित हैl


1


उधेड़बुन

सिकंदर, हाँ यही नाम था उसकाl सत्रह-अट्ठारह वर्ष की किशोरावस्था, लम्बा चौड़ा कद, गोरा और लम्बा चेहरा, गहरी एवं नीली आंखे, नुकीली नाक सिर्फ एक ही मुलाकात में किसी के भी आकर्षण का विषय होने की काबिलियत थी उसमेंl बहुत ही कम उम्र में जिंदगी को जीने का सलीका सीख लिया था उसनेl करतार नगर की झोपड़-पट्टी में पला और बढ़ा, करतार नगर से कुछ ही दूरी पर गणेश भोजनालय में काम करता था वहl उसकी अम्मी का इंतकाल असामयिक ही गंभीर बीमारी के कारण हो चुका था तब से दुनिया में उसका ख़ुद के सिवा कोई और ना होने के कारण वह ख़ुद में ही खोया हुआ और गुमसुम रहता थाl

आज सुबह से ही उसके मस्तिष्क की हलचल और आँखों की बेचैनी को महसूस किया जा सकता था, प्रतिदिन की तरह आज वह अपने काम को निपुणता से नहीं कर पा रहा थाl रात में रोजमर्रा की तरह छुट्टी के बाद वीडियो गेम की दुकान पर वीडियो गेम खेलने भी नहीं गया जबकि यह उसका विशेष पसंदीदा कार्य थाl छुट्टी के पश्चात आज वह सीधा अपने घर सी-61, करतार नगर की ओर चल पड़ाl जहाँ वह दस मिनट में अपने घर चला आया करता था, आज उसे ऐसा महसूस हो रहा था कि उसके कदम उठ नहीं रहे हैंl ऐसा लग रहा था कि कोई अदृश्य शक्ति उसे पीछे की ओर खींच रही है, जैसे-तैसे लड़खड़ाते क़दमों से वह अपने घर पहुँचा परन्तु आज उसे घर पहुँचने में आधे घंटे से कुछ अधिक वक्त लगाl


अमूमन वह भोजनालय से खाना खाकर ही आया करता था लेकिन आज वह बिना खाए ही वहाँ से निकला था और यह सब उसका सहकर्मी जयंत जो कि सिकंदर को अपना एक अच्छा मित्र मानता था, देख रहा थाl उसने सिकंदर के लिए खाना पैक किया और उसके पीछे दौड़ कर उसे जबरदस्ती थमा दियाl घर आकर सिकंदर ने अनमने मन से खाना खाने की तैयारी कीl आज उसे उसकी अम्मी की बहुत याद रही थी, पता नहीं किन विचारों में खोया हुआ थाl अपने विचारों में डूबते-उतराते हुए वह खाने के लिए बैठ गयाl आज एक-एक निवाला उसके गले से कठिनाई से उतर रहा था, उसे याद रहा था कि जब वह उदास होता था तब उसकी अम्मी उसे अपने हाथों से बड़े प्यार से खाना खिलाती थीl उसके मुँह से आह के साथ एक स्वर उभराअम्मीऔर वह अपनी पूर्व स्मृति की गहराईयों में खोता चला गयाl

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