टीस
. **टीस**
पोता आया था वर्षों, बाद गांव अपने,
अकेले रहने वाले, दादा दादी से मिलने।
साथ बचपन की सारी,यादों का साया,
दूर विलायत से, उड़कर था आया।
यादों में, ताल तलैया थी,
ठंडी छांव वाली, अमरैया थी।
गलियों की, भूल भुलैया थी,
वो सपनो की, छैयां भुईया थी।
मम्मी पापा चाचा चाची,
दीदी भैया, बुआ स्वीटी।
घर लगता था तब, सपनो के घर जैसा,
अब लगता मानो,वो सपनो का घर ही था।
अब दादा दादी, दो ही प्राणी,
बड़े से घर में काट, रहे जिंदगानी।
दादा दादी, घर के एक कोने में,
सिमट के रह गए, अपने बिछौने में।
एक एक कदम भी चलना, उनको है भारी,
पर घर में रहना, शायद उनकी है लाचारी।
देख पोते का मन, हुआ बड़ा विव्हल,
दुख से अश्रुधारा, अनवरत बहा निकल।
दादा ने पोते को, पास बिठाया,
बड़े प्यार से, सिर को सहलाया।
किस बात को लेकर, रोते हो तुम,
क्यों व्यर्थ, दोष पिता को देते हो तुम।
जैसे भी रह रहे हैं, अब रहने दो हमको,
वानप्रस्थ सा जीवन, जीने दो हमको।
तुम्हारी दादी के, जीने का मकसद ही हूं मैं,
वो अकेली ना हो जाए, इस दम पे हूं मैं।
विधाता ही चला रहे, हम दोनो की गाड़ी,
जब निभ गई अब तक, तो निभेगी उम्र सारी।
इतनी भी फिक्र ना, करो तुम हमारी,
हमारी तो कट गई, तुम्हारी तो पड़ी उम्र सारी।
अनायास तुम्हें देख, एक बार लगा मुझको ऐसे,
तुम्हारे पिता खुद, सामने खड़ा हो मेरे जैसे।
जो गया वो विलायत, तो वहीं का हो गया,
लौटकर फिर न आया,मन देखने को तरस गया।
बारिश के मौसम में, कंधे पर बिठाकर,
नाला पार मुश्किल से,कराया करता था उसको।
तब जा पाता था, स्कूल वो पढ़ने,
धीरे धीरे सफलता की, सोपान लगा वो चढ़ने।
उसकी सफलता से, हम फूले ना समाते,
पड़ोसियों, रिश्तेदारों, सभी को खुश हो बताते।
अपने सपनो को हमने, टिका दिया था उसी पे,
धीरे धीरे सपनो की तरह, दूर होता गया वो।
तुम आए तो हमारी , जीवन खिल गई,
कुछ और दिन जीने की, वजह मिल गई।
अगर हो सके तो,ऐसे ही अपने पापा को लाना,
हमारे उपर जाने से पहले, एक बार तो मिलाना।
पोते ने कहा, कह नहीं सकता उन्हें ला पाऊंगा,
पर दादू ! ये तय है , विलायत मैं नहीं जाऊंगा।
✍️ विरेन्द्र शर्मा
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें