मन

 


**मन**


इस मन रूपी पतंग का,

कोई ओर है, ना छोर।

उड़ान इतनी, ऊंची है इसकी,

मैं बांधूं , कहां से डोर।


डोलता रहता, इधर उधर,

स्थिर नहीं, इसकी डगर।

हिलोरें मारता, रहता सदा,

भटकता रहता, है चहुओर।


इतना चरता है, विचरता है,

पर सदा अतृत्प, रहता है।

रुकना कभी, न जानता,

न टिकता, कभी इक ठौर।


मन का नियंत्रण, कहते,

सांसों से ही, होता सदा।

सांसें यदि, सध जाएं तो,

सध जाए, मन का मोर।


नृत्य फिर, ये मन करेगा,

मन नियंत्रण, में रहेगा।

वश में हुआ, जो मन अगर,

खुद मिल जायेंगे, चितचोर।


✍️ विरेन्द्र शर्मा

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