बनारसी प्रेम
एक कलम , पत्र और श्याही लूं
अब एक दूजे का सार लिखें
गहन चिंतन पूरे मन से कर
आ दोनो को विस्तार लिखूं
तुम शहर बनारस की ऋतु वसंत
मैं धूल का एक बवंडर हूं
तुम संगेमरमर की चमक धमक
मैं काला सा एक खंडहर हूं
तुम घाट घाट बहती गंगा
मैं घाट का अंतिम पत्थर हूं
तुम सरल, शांत, सुंदर स्वरुप
मैं व्यवहारों से फक्कड़ हूं
तुम अस्सी घाट की शाष्त्रवादी
मैं परिभाषित आवारा हूं
तुम जैसे शाम दिसंबर की
में अंतिम जीवन यात्रा हूं
तुम काशी की सी आदि अंत
मैं बीच लहर में फसा हुआ
मणिकर्णिका जैसी रौशन तुम
मैं मृत्यु सैया में धसा हुआ
तुम प्रेम पूर्ण और पाक साफ
मैं मटमैली सी सीढ़ी हूं
तुम गंगाजल की ठंडक हो
में दरस तरसती ये पीढ़ी हूं
तुम वो बनारस हो प्रिए
जो तंग गली में बसता है
जो खिलखिला कर हंसता है
जो गंगा को जाने का रस्ता है
मैं वो बनारस हूं प्रिए
जो ट्रैफिक जाम में ठहरा सा
जो शंख ध्वनि से बेहरा सा
जो गहन रहस्य से गहरा सा
एक बात बताओ मुझको प्रिए
क्या आसान है तुम सा होना
कि, मोह, मर्म से तुम अछूत
जन्म , मरण, भविष्य, भूत
सब काल चक्र गए पीछे छूट
तुम गौरी शंकर की सी मूर्त
शक्ति, तेज, की तुम स्वरूप
एक बात कहूं क्या तुमको प्रिए
मुश्किल तो है तुम सा होना
तुम वो बनारस हो प्रिए
जो चाहे हर कोई होना
तुम शहर बनारस हो प्रिए
तुम इश्क बनारस हो प्रिए
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