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छेड़ो बांसुरी की तान

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  **छेड़ो बांसुरी की तान ** कोई मीत में मगन, कोई प्रीत में मगन, कोई नृत्य में मगन, कोई गीत में मगन। कोई राग में मगन, तो कोई साज में मगन, खुशी चाहते सभी, बुझाते अपनी अगन। आया बसंत बहार, खिल उठा हर चमन, खुशनुमा लग रहा, आज धरती गगन। खिले टेसू के फूल,चाहे पत्तियों के बिन, केसरिया रंग से पूरा, खिल गया ये वन। बौराने लगे आम , गूंजती है कोयल की तान, खुशबू बिखेरती है, मदमस्त हो पवन। प्रकृति की ये छटा, बढ़ाए मन की तपन, मन बहक बहक जाए, करे कोई क्या जतन। आओ सखी मिलकर, करें कोई तो यतन, इस प्रेमाग्नि का भला, अब कैसे हो शमन। कृष्ण की राह ही, अब निहारते हर नयन, छेड़ो बांसुरी की तान, मिले दिल को सुखन।  रास रंग का वही, भर दो तन में उमंग, चाहतों का चाह से, आज हो जाए मिलन। ✍️ विरेन्द्र शर्मा

पर्यावरण संरक्षण

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  जीवन यदि बचाना है तो पर्यावरण बचाना होगा। खुद भी हमें समझना होगा, लोगों को समझाना होगा।। कुछ को मैं झकझोर जगा दूं, कुछ को तुम्हे जगाना होगा। प्रेरित हो, सब साथ चलें, कुछ ऐसा कर दिखलाना होगा।। जीवन यदि बचाना है तो पर्यावरण बचाना होगा। भूमि जकड़े पेड़ खड़ा था। कस कर मिट्टी को पकड़ा था।। पेड़ कट गया, मुट्ठी खुल गई। बारिश आई, मिट्टी घुल गई।। मृदा क्षरण गंभीर समस्या, फिर से पेड़ उगाना होगा। जल संकट के समाधान को हरित क्रांति लाना होगा।। जीवन यदि बचाना है तो पर्यावरण बचाना होगा। मानव तीव्र गति से भागे। कितना होगा उन्नत आगे।। आधुनिकता में खोया है। गहरी नींद खुले तो जागे।। कहीं ग्लेशियर पिघल न जाए, खुद पर रोक लगाना होगा। लेकर अपनी जिम्मेदारी, सबको आगे आना होगा।। जीवन यदि बचाना है तो पर्यावरण बचाना होगा। धुंआ ऊपर, धुंआ नीचे। धुंआ आगे, धुंआ पीछे।। धुंआ अंदर, धुंआ बाहर। वायुमंडल धूम्र समंदर।। टी बी, कैंसर से बचना है, वायु शुद्ध बनाना होगा। जब तक वायु शुद्ध न होगी, हमको अलख जगाना होगा।। जीवन यदि बचाना है तो पर्यावरण बचाना होगा। नष्ट न होती कभी प्लास्टिक। समझो, ये है बात मार...

हाय रे ये महंगाई

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  हाय रे ये महंगाई, चारों ही तरफ छितराई। थैला भर रुपिया ले गए, मुट्ठी भर सब्जी न आई।। पहली से देखत देखत, दस तारीख इंकम आई। दुई दिन में ही हो जावे, महीना की खत्म कमाई।। महंगाई का आलम ये है, रुपिया बन गया जमाई। महंगाई की मार पड़ी है, घर छोड़ के गई लुगाई।। महंगाई का रोना रोते, सारी दुनिया पगलाई। थक हार के करते हैं तब, सब काली भ्रष्ट कमाई।। रिश्ते नाते भी महंगे, जिस पर रुपिया वो भाई। महंगाई भरी दुनिया में, इंसान न दे दिखलाई।। महंगाई से बेबस होकर, कुछ ने है रिश्वत खाई। कुछ ने नैतिकता पर चल, निर्धनता गले लगाई।। सब बने मशीनी मानव, जिसकी ना कोई दवाई। पैसे के पीछे भागे, ना कोई करें भलाई।। सरकार से है ये विनती, महंगाई से करो लड़ाई। जनहित में करो कुछ ऐसा, महंगाई हो धराशाई।। क्या दौर पुराना था वो, बस दिल में थी सच्चाई। भगवान वो दिन लौटा दो, जब नहीं थी यूं महंगाई।।

सब इंद्रियों से परे परमात्मा

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 **सब इंद्रियों से परे परमात्मा** प्रकृति   में   बसा   हर   आकृति   है,               मानव   भी   उसकी   एक   कृति  है। हम    सोचें    श्रेष्ठ    हमीं    सब   से,                 शायद     ये    हमारी    दुष्कृति    है। सब  जीवों  का  अपना  जगत  अलग,               सबका    अपना   अपना    संसार  है। अपना   सबका    दृष्टिकोण     अलग,                हम क्यों समझें अपना एकाधिकार है। एक   ही   ईश्वर   है  सब   जीवों  का,               सब   उन्हीं  को   ...

माँ

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  माँ जान जाती है, बच्चे की मनःस्थिति कैसी है। आप कह दो, मैं ठीक हूँ, फिर भी वो जान जाती है, परिस्थिति कैसी है।। माँ की याद आने पर भी, मुझ जैसे बच्चे, मिलने जाते नहीं। माँ भी तड़पती होगी, क्योंकि उसे भी बच्चे समय से, मिल पाते नहीं।। माँ जान बूझ कर, अपने बच्चे को, पास बुलाती नहीं। शांत भाव से, बच्चों की गृहस्थी बचाती है, माँ जताती नहीं।। माँ की जगह, कोई नही ले सकता। माँ जैसा प्यार, कोई नहीं दे सकता।।

खुल के जियो

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  पहन ओढ़ कर श्रृंगार करना, आप स्त्री हो, सबसे पहले खुद से प्यार करना। मुस्कुराना और खिलखिलाना, आप स्त्री हो, सबसे पहले अपने मन और तन को तैयार करना। पता नहीं कब ईश्वर हमें बुला ले, किसी और की जरूरत नहीं, हम खुद ही स्वयं को मना लें। खुल कर जिन्दगी जीना, आप स्त्री हो, सबसे पहले खुद से प्यार करना। चेहरे पर मुस्कान आँखों मे चमक रखना, आप स्त्री हो, सबसे पहले खुद से प्यार करना, आप स्त्री हो।

चुनाव के बाद का पल

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  **चुनाव के बाद का पल** धड़कने अब, बढ़ रही है, बैठे हैं, थामे दिलों को। ऊंट किस, करवट टिकेगा, यही चिंता, सब दलों को। जिसने अपना, धन लगाया, तन लगाया, मन लगाया। आने को परिणाम, अब तो, बेचैनी ने, उनको सताया। नोट के, बदले बिके हैं, वोट कितना, कौन जाने। जीत का सेहरा, जो पहने, कसौटी में, खरा तब मानें। अभी तो जां, अटकी हुई है, मन भी कुछ, भटका हुआ है। हर पल, लगता सदी सा, समय मानो, थम सा गया है। कर्म किया है, तुमने अपना, फल की चिंता, अब करो ना। मुझमें अपनी, श्रद्धा रख्खो, पाने खोने से, अब डरो ना। ✍️ विरेन्द्र शर्मा "अवधूत"