हाय रे ये महंगाई
हाय रे ये महंगाई,
चारों ही तरफ छितराई।
थैला भर रुपिया ले गए,
मुट्ठी भर सब्जी न आई।।
पहली से देखत देखत,
दस तारीख इंकम आई।
दुई दिन में ही हो जावे,
महीना की खत्म कमाई।।
महंगाई का आलम ये है,
रुपिया बन गया जमाई।
महंगाई की मार पड़ी है,
घर छोड़ के गई लुगाई।।
महंगाई का रोना रोते,
सारी दुनिया पगलाई।
थक हार के करते हैं तब,
सब काली भ्रष्ट कमाई।।
रिश्ते नाते भी महंगे,
जिस पर रुपिया वो भाई।
महंगाई भरी दुनिया में,
इंसान न दे दिखलाई।।
महंगाई से बेबस होकर,
कुछ ने है रिश्वत खाई।
कुछ ने नैतिकता पर चल,
निर्धनता गले लगाई।।
सब बने मशीनी मानव,
जिसकी ना कोई दवाई।
पैसे के पीछे भागे,
ना कोई करें भलाई।।
सरकार से है ये विनती,
महंगाई से करो लड़ाई।
जनहित में करो कुछ ऐसा,
महंगाई हो धराशाई।।
क्या दौर पुराना था वो,
बस दिल में थी सच्चाई।
भगवान वो दिन लौटा दो,
जब नहीं थी यूं महंगाई।।
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें