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मैं क्यों आया हूँ?

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 मैं क्यों आया हूँ? जाति धरम और पैसों की दीवार गिराने आया हूँ मैं आशिक सच्चाई का मैं इश्क लुटाने आया हूँ ग़ुलाब की कलम से कलम कर कलम से लिखी आयते मोहब्बत इस दुनिया को पढ़ाने आया हूँ मज़बूत दिल, मज़बूत कंधे, मज़बूत इरादे भी हैं कुदरती कानून की चादर सर पे सजाने आया हूंँ बाज़ुओं में मेरी ताक़त भरी इस ऊपर वाले की बाज़ू वाले के साथ सुनहरी फसल उगाने आया हूँ दिल में अक़ीदा और आँखो में मंज़िले इंसानी है मैं ज़मीं पे सदाकत के फूल खिलाने आया हूँ 'इंसान' हूँ मैं औक़ात मेरी हर शय से ऊंची है दोज़ख भी फूंकी है अब जन्नत बनाने आया हूँ

मेरी छोटी सी दुनिया

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 "मेरी छोटी सी दुनिया" छोटी ही सही पर मेरी दुनिया मेरे रुकने से रूकती है मेरे चलने से चलती है। मेरी दुनिया में उंगली की गिनती के कुछ लोग हैं जो इस दुनिया में मेरे अपने हैं जिनके लिए मैं जीता हूं  और शायद मर भी सकता हूं इन्हें फर्क पड़ता है मेरी खुशी और मेरे गम से इन्हें फर्क पड़ता है मेरे बीमार पड़ने से यहां तक कि मेरी वजन से इन्हें फर्क पड़ता है जब मैं खाना नहीं खाता हूं जब मैं नज़रे चुराता हूं जब मैं गुस्सा हो जाता हूं या जब मैं मुस्कुराता हूं हां इन्हें फर्क पड़ता है मेरी इस दुनिया की सास-बहू में, दादा-पोते में, मां-बेटे में, भाई-बहनों में, देवरानी-जेठानी में, ननंद- भाभी में, और सभी रिश्ते में मेरे होने ना होने से फर्क पड़ता है बस यही सोच सोच कर मैं जिंदा हूं, कई खुदखुशी के  ख्याल के बाद भी मैं जिंदा हूं. पर सच कहूं कड़वा है पर सच है कि मैं सिर्फ जिंदा हूं कि मुझे उतारा गया था जमीन पर एक बड़े मकसद के लिए ना वो मकसद मिला ना उसकी कोई मंजिल  ना कोई रास्ता इसलिए सांस दर सांस मैं मर रहा हूं। मैं जिंदा तो हूं पर सिर्फ मौत का इंतजार कर रहा हूं। ऑफिस में भी मैनेजर था और घ...

पिंडदान

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  पिंडदान मैं एक हूं  और होना चाहता हूं एक से दो जैसे टूटती एक कोशिका और टूट कर हो जाती है एक से दो लेकिन,  बस ऐसे ही नहीं हो जाती  एक कोशिका  एक से दो  पहले समाहित करती है  खुद में अनेक एक  भोजन के रूप में और जब भर जाता है पेट पा लेती है पूर्णता  आकार की उसमें निहित पूर्णांश प्रेरित करता है उसे  अस्तित्व के प्रयोजनार्थ  कि आगे उसे निभानी है  समग्र व्यवस्था में भागीदारी और उस व्यवस्था के लिए  उसे हो जाना है एक से दो और वो हो ही जाती है एक से दो हां ऐसे ही मैं भी हो जाना चाहता हूं एक से दो कोशिकाओं से बना ये पिंड, ये शरीर   तो हो ही जाता है एक से दो हर बाप का  या हर मां का पर ‘वह’ नहीं हो पाता एक से दो जैसे मैं भी नहीं हो पाया बाप हो कर भी  एक से दो और न कभी हो पाऊंगा  शरीर के माध्यम से क्योंकि मैं शरीर नहीं मैं, मैं हूं जो सच्ची और सही समझ से,  पूर्ण शिक्षा से और  पूर्ण शिक्षक से होता है  एक से दो वरना  सिर्फ होते रहते हैं पिंड से पिंड  एक से दो नहीं हो पाता है इंसान से दूस...

ज़रूरत

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 ┈┉┅━❀꧁꧂❀━┅┉┈ ज़रूरत ┈┉┅━❀꧁꧂❀━┅┉┈ तुझे मेरी ज़रूरत है। मुझे तेरी ज़रूरत है। ज़रूरत से ये दुनिया है, बड़ी सबसे ज़रूरत है। ज़रूरत आदमी की है। ज़रूरत ज़िन्दगी की है। ज़रूरत दुःख के इस बाज़ार में, अदना हँसी की है। ज़रूरत खानदानी है। ज़रूरत की कहानी है। बुढ़ापे को ज़रूरत में ही, पूछे ये जवानी है। ज़रूरत से ही रिश्ते हैं। ज़रूरत पर जो हंसते हैं। ज़रूरत पर बिखरते हैं, ज़रूरत पर पनपते हैं। ज़रूरत पर भजन करते। ज़रूरत पर नमन करते। ज़रूरत पर ज़रूरतमंद, क्या क्या ही जतन करते। ज़रूरत मंज़िलों की है। ज़रूरत सब दिलों की है। है छोटी ज़िन्दगी लेकिन, ज़रूरत कई किलो की है। ज़रूरत हर किसी की है। ज़रूरत हर कहीं की है। ज़रूरत आसमां की तो, कभी होती ज़मीं की है। ज़रूरत जीत जाने की। ज़रूरत आजमाने की। ज़रूरत मुस्कुराने की, ज़रूरत घर ठिकाने की। ज़रूरत एक छत की है। ज़रूरत कुछ बचत की है। भरे पूरे घरों में अब, ज़रूरत एक मत की है। ज़रूरत श्वास की भी है। ज़रूरत आस की भी है। ज़रूरत लुप्त होते आजकल, विश्वास की भी है। ज़रूरत है सियासत की। ज़रूरत है बग़ावत की। ये दुनिया हो गई पापी, ज़रूरत है कयामत की। ज़रूरत गुफ्तगू की...

नमामी शिव, शिवः, शिवम

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 नमामी शिव, शिवः, शिवम नमामी शिव, शिवः, शिवम, नमामी चन्द्र शेखरं। हैं आदि अंत से परे, स्वयंभू शिव त्रिलोचनं। श्री गंगाधर, जगतपिता, त्रिशूल धारी शंकरं। वो देवों के भी देव हैं, नमामी दिग दिगम्बरं। हरेक कण में शिव ही हैं, हरेक क्षण में शिव ही हैं। हरेक तन में शिव ही हैं, हरेक मन में शिव ही हैं। वो व्याप्त सर्व ओर है, निशा है या कि भोर है। हृदय दया से पूर्ण है, पर आवरण कठोर है। गले में सर्प कुण्डली, जटा से गंग है चली। जो व्यक्ति धर्म युक्त है, करेंगे उसकी शिव भली। त्रिशूल डमरू धारते, वो दुष्टों को संहारते। हे भोले, शंभू, नील कंठ, देव पग पखारते। हृदय वृहद विशाल है, दयालु और कृपाल हैं। वो देवताओं के भी देव, काल के भी काल हैं। ये सृष्टि उनसे चल रही, गले गरल धरे वही। इधर, उधर, यहाँ, वहाँ, बसे वही हैं हर कहीं। जगत चलायमान है, ये भोले का विधान है। है शिव का हाथ जिसपे भी, वो बन गया महान है। नमः शिवाय बोलिए, प्रकाश मार्ग खोलिए। शरण में शिव की आइए, हृदय को शिव से जोड़िए। स्वरचित मौलिक रचना रामचन्द्र श्रीवास्तव कवि, गीतकार एवं लेखक नवा रायपुर, छत्तीसगढ़ संपर्क सूत्र: 6263926054

अपना घर

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  ******************** अपना घर ******************** घर बनाना और घर पाना, हर किसी की ख्वाहिश होती है। अपने घर का मालिक बनना, हर किसी की चाहत होती है। घर नहीं होने का दर्द उनसे पूछिए, जिनके पास घर नहीं। खुद की दीवारें, खुद की छत, खुद का दर नहीं। अपने घर की कुछ यादें, कुछ सपने होते हैं। सपने में घर, बागवानी, सब अपने होते हैं। जिनके पास अपना घर नहीं, उनके सपने चकनाचूर होते हैं। हकीकत में वो सपनों से, बहुत ही दूर होते हैं। ******************** स्वरचित मौलिक रचना अर्चना श्रीवास्तव कवयित्री नवा रायपुर, छत्तीसगढ़ ********************

वतन के वीर जवान

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 ******************* वतन के वीर जवान ******************** अचूक निगाह, देश की परवाह। साहसी और बलिदानी, वीर योद्धाओं की, अमर कहानी। दुश्मनों पर विजय, न कोई डर न भय। हो देश के लिए कुरबान, करे न्यौछावर अपनी जान। सरहद पर खड़ा, बन पत्थर सा सख्त, यही तो है हमारी, आजादी की कीमत। बम बारूद से घिरे, मौत से लड़ते है, जान देकर अपनी, देश की रक्षा करते है। दिया है भारत माँ को, यही तो वचन, लुटा देंगे हम देश की, रक्षा में जानो तन। ******************** स्वरचित मौलिक रचना अर्चना श्रीवास्तव कवयित्री नवा रायपुर, छत्तीसगढ़ ********************