क्या करूँ कि उलझने सुलझती ही नहीं?

 

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क्या करूँ कि उलझने सुलझती ही नहीं?
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क्या करूँ कि उलझने सुलझती ही नहीं?
राह कोई बीच की निकलती ही नहीं।

तूने धैर्य को भी आजमाया क्या?
तेरे अपनों को भी कुछ बताया क्या?
चिन्ता छोड़ चिन्तन किया तूने,
खुद को खुद ही रस्ता दिखाया क्या?

क्या करूँ कि ज़िन्दगी सरकती ही नहीं?
राह कोई बीच की निकलती ही नहीं।
क्या करूँ कि उलझने.....

क्या भरोसा तुझको ईश पर है?
क्या कोई उम्मीद तेरे घर है?
हाथ जोड़ कर के मांग माफ़ी,
गर कोई गुनाह तेरे सर है।

क्या करूँ कि बेड़ियां ये कटती ही नहीं?
राह कोई बीच की निकलती ही नहीं।
क्या करूँ कि उलझने.....

क्या पता कि ये तेरी परीक्षा हो?
जिन्दगी की मिलने वाली शिक्षा हो।
कोशिशों का साथ पकड़े रहना तू,
क्या पता भविष्य और अच्छा हो?

क्या करूँ कि मुश्किलें सिमटती ही नहीं?
राह कोई बीच की निकलती ही नहीं।
क्या करूँ कि उलझने.....

हाथ में तेरे है तो फिकर कर।
वरना चिन्ता छोड़ सारी उस पर।
वो पिता है तुझको उतना देगा,
जितना बोझ रख सके तू सिर पर।

क्या करूँ कि खुशियां दिल में बसती ही नहीं?
राह कोई बीच की निकलती ही नहीं।
क्या करूँ कि उलझने.....

नाउम्मीदियों को छोड़ देना तू।
हौसलों से रस्ते मोड़ देना तू।
सीख कर के विफलताओं से अपनी,
अगली बार हद को तोड़ देना तू।

क्या करूँ कि अटकलें भी हटती ही नहीं?
राह कोई बीच की निकलती ही नहीं।
क्या करूँ कि उलझने.....

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स्वरचित मौलिक रचना
रामचन्द्र श्रीवास्तव
कवि, गीतकार एवं लेखक
नवा रायपुर, छत्तीसगढ़
संपर्क सूत्र: 6263926054
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