संदेश

जुलाई, 2025 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

माँ की रचना

चित्र
  माँ की रचना ईश्वर ने प्रेम बांटने के लिए की माँ की रचना। कौन था वो जिसने बिगाड़ दी माँ की संरचना।। धरती, गाय, स्त्री सबको माँ की रचना माना गया है। फिर क्यों यह पाप? गौ-हत्या और बेटी-बहु को मारा गया है।। माँ की रचना के साथ प्रेम, एकता, परिवार बनाया गया है। फिर क्यों माँ के रहते ही, स्त्री के मन में डर और मानसिक तनाव बढ़ाया गया है।। यदि आपकी माँ सम्मान, प्रेम और दया की पात्र है। याद रहे, मैं और मेरी माँ भी सम्मान, प्रेम और दया की पात्र हैं।। मैं और सिर्फ़ मैं का अभिमान करने वालों ने, बदल दी माँ की रचना। दुर्भाग्य, माँ होते हुए भी स्त्री ने खुद ही, बदल दी माँ की संरचना॥

शहीद

चित्र
  शहीद पद चिन्ह जिनके देश की सीमा बना रहे हैं। वो नाम क्यों इतिहास से छुपाए जा रहे हैं।। बर्फ, पहाड़, रेत, जंगल बड़ी तकलीफ है जहाँ। गाँव की मिट्टी छोड़कर फौजी रहता है वहाँ।। बीवी, बच्चे, माँ-बाप, बहन-भाई छूट जाते हैं। देश की रक्षा के ख़ातिर कई नाते टूट जाते हैं।। लरज़ते हाथ, राखी, बोझिल आँखें, राह तकती हैं। फोन पे आवाज़ "घल आओना" सवाल करती है।। कभी तो सलामत वो शरीर के साथ आ पाता है। कभी लिपटे तिरंगे में शरीर से पहले आ जाता है।। काश कि उसके चरणों को मैं पल-पल छूता होता। काश कि उसके चरणों का मैं काला जूता होता। ।

ख़याली लकीरें

चित्र
  *ख़याली लकीरें* ज़मीन, फिजाओं  और समंदर पर जो लकीरें दिखती नहीं खींच दी है  कुछ ख़ुदग़र्ज़ों ने अपनी ऊंची ऊंची  नाकों के लिए जिन्हें... न इंसान समझ में आया न इंसाफ  और न ही इंसानियत  बन गए है वो हुक्मरान  और सबब–ए–हैवानियत ये गुनाह है... चंद सिक्कों की लालच दे  इंसान को मशीन बनाना उसमें सोचने समझने की ताकत छीन  हर हुक्म पे कहलवाना यस सर और उसे कर देना खड़े उन खयाली लकीरों पर गुस्सा, गुरूर और दुश्मनी,  भरकर ग़ज़ब है... इस खयाली लकीरों के  इस तरफ कत्ल कत्ल है कातिल को सज़ा है  और उस पार का कत्ल  साहस है रुतबा है इनाम और चक्रों की रज़ा है अरे... हर कोई होता है  सुहाग, बाप या भाई किसी न किसी का  यह बात तो साफ है फिर ये कैसा इंसाफ है? - अनीस ‘इंसान’

परायों में अपनापन

चित्र
  परायों में अपनापन मेरे चेहरे की हँसी गायब हो जाती है, जब मैं ढूंढती हूँ परायों में अपनापन। आँखें नम हो जाती हैं याद करके, अपनों के साथ बिताया बचपन।। काम, जिम्मेदारी, ताने, नाराजगी, बदतमीजी सब मेरे हिस्से। ये है मेरी जबानी परायों में, अपनापन ढूंढने के किस्से।। जब सुखमयी फैसले और सुखी जीवन का, कारण मुझे मानते ही नहीं। मेरे आत्मसम्मान के हनन का, कारण जानते ही नहीं। तब मैं कहती हूँ कि, परायों में अपनापन है नहीं।। परायों में अपनापन ढूंढ कर, जीवन में कमी रह जाती है। दुर्भाग्य है मानव का, परायों में अपना ढूंढ कर, आंखों में नमी रह जाती है। ।

माँ का प्यार

चित्र
 ********** माँ का प्यार ********** अपने बच्चों पर माँ अपनी ममता यूं बरसाती है। मानो यह आकाश धरा पर, वर्षा की बूंदें बरसाता। अपना आंचल फैला कर के, ऐसे प्यार लुटाती है। मानो नदियों में पवित्र जल, बिना रुके ही बहता जाता। माँ छुटपन में ही बच्चों में, संस्कार भर देती है। मानो खाद जरूरी लेकर, बीज एक पौधा बन जाता। हर एक अवस्था पर ही माँ की, छाया सिर पर रहती है। मानो धरती का संबल ले, पौधा एक पेड़ बन जाता। लाड़ लड़ाती, डांट पिलाती, कभी प्यार से समझाती। मानो कि पूरी दुनिया की, पूरी दुनिया ही है माता। बच्चे का भी जहां वहीं तक, जहाँ जहाँ दिखती है माता। मानो माँ के आकर्षण से, बच्चा खुद ही खींचता आता। ********** स्वरचित मौलिक रचना अर्चना श्रीवास्तव कवयित्री नवा रायपुर, छत्तीसगढ़ **********

कल्पना के पंख

चित्र
 ┈┉┅━❀꧁꧂❀━┅┉ कल्पना के पंख ┈┉┅━❀꧁꧂❀━┅┉┈ तुमसे मिलकर, दिल मेरा, जाने कहाँ गुम हो गया, मानो कोई कल्पना के पंख लेकर उड़ चला। ज़िन्दगी बेरंग थी, तुम आ गए रंग आ गया, मानो अंधियारे को कोई चीरता रौशन दिया। चेहरे की मासूमियत, नटखट ये अंदाज ए बयां, मानो जैसे कि कन्हैया कर रहा अठखेलियां। ज़िन्दगी कागज़ है जिसपर तुमने दी निशानियां, मानो चित्रकार कोई करता चित्रकारियां। गौरवर्णी गाल पर एक श्यामवर्णी तिल धरा, मानो बर्फीली सतह पर अकड़ कर कोई खड़ा। गेसुओं के कोर पर पानी की बूंदों का धड़ा, मानो मंगलसूत्र कोई खास हीरों से जड़ा। देखते ही देखता मैं एकटक तुमको रहा, मानो एकदम से खज़ाना देख कोई हिल गया। नख हैं लंबे धारती हैं लंबी, कानी उंगलियां, मानो तीक्ष्ण हथियारों का ही ज़ख़ीरा मिल गया। हंसना, रोना, रूठना, और फिर झगड़ना, मानना, मानो कला का एक धनी किरदारों में डूबा पड़ा। तिरछी आंखों से कभी वो देखना मुझको तेरा, मानो तीरंदाज़ कोई हो निशाना ले रहा। जागती आंखों में भी केवल तुम्हारा अक्स सा, मानो कोई ख्वाब में ही हो हक़ीक़त जी रहा। प्रणय निवेदन मेरी जिद और दिल तुम्हारा पिघल रहा, मानो ...

रिश्ते

चित्र
 ********** रिश्ते ********** कुछ दर्द मिला, कुछ ज़ख्म मिले, कुछ अपनों के ही ताने। कुछ लोगों ने की साजिश तो, कुछ हमको लगे गिराने। कुछ लोगों ने हमसे दूरी, करने के किए बहाने। कुछ ने हमको बदनाम किया, कुछ लगे हमें ठुकराने। हमने जब उनसे पूछा तो, वो उल्टा लगे दबाने। क्यों सुनते नहीं हमारी वो, बस लगे हैं अपनी गाने। बतलाओ मैं ही पागल हूँ, या लोग हुए दीवाने। क्या हमसे उन्हें शिकायत है, क्या क्या शिकवे हैं जाने? हम फिर भी कतरन सिल सिल कर, रिश्तों को लगे बचाने। रिश्तों की कलियां चुन चुन कर, हम उनको लगे निभाने। ********** स्वरचित मौलिक रचना अर्चना श्रीवास्तव कवयित्री नवा रायपुर, छत्तीसगढ़ **********

मैं क्यों आया हूँ?

चित्र
 मैं क्यों आया हूँ? जाति धरम और पैसों की दीवार गिराने आया हूँ मैं आशिक सच्चाई का मैं इश्क लुटाने आया हूँ ग़ुलाब की कलम से कलम कर कलम से लिखी आयते मोहब्बत इस दुनिया को पढ़ाने आया हूँ मज़बूत दिल, मज़बूत कंधे, मज़बूत इरादे भी हैं कुदरती कानून की चादर सर पे सजाने आया हूंँ बाज़ुओं में मेरी ताक़त भरी इस ऊपर वाले की बाज़ू वाले के साथ सुनहरी फसल उगाने आया हूँ दिल में अक़ीदा और आँखो में मंज़िले इंसानी है मैं ज़मीं पे सदाकत के फूल खिलाने आया हूँ 'इंसान' हूँ मैं औक़ात मेरी हर शय से ऊंची है दोज़ख भी फूंकी है अब जन्नत बनाने आया हूँ

मेरी छोटी सी दुनिया

चित्र
 "मेरी छोटी सी दुनिया" छोटी ही सही पर मेरी दुनिया मेरे रुकने से रूकती है मेरे चलने से चलती है। मेरी दुनिया में उंगली की गिनती के कुछ लोग हैं जो इस दुनिया में मेरे अपने हैं जिनके लिए मैं जीता हूं  और शायद मर भी सकता हूं इन्हें फर्क पड़ता है मेरी खुशी और मेरे गम से इन्हें फर्क पड़ता है मेरे बीमार पड़ने से यहां तक कि मेरी वजन से इन्हें फर्क पड़ता है जब मैं खाना नहीं खाता हूं जब मैं नज़रे चुराता हूं जब मैं गुस्सा हो जाता हूं या जब मैं मुस्कुराता हूं हां इन्हें फर्क पड़ता है मेरी इस दुनिया की सास-बहू में, दादा-पोते में, मां-बेटे में, भाई-बहनों में, देवरानी-जेठानी में, ननंद- भाभी में, और सभी रिश्ते में मेरे होने ना होने से फर्क पड़ता है बस यही सोच सोच कर मैं जिंदा हूं, कई खुदखुशी के  ख्याल के बाद भी मैं जिंदा हूं. पर सच कहूं कड़वा है पर सच है कि मैं सिर्फ जिंदा हूं कि मुझे उतारा गया था जमीन पर एक बड़े मकसद के लिए ना वो मकसद मिला ना उसकी कोई मंजिल  ना कोई रास्ता इसलिए सांस दर सांस मैं मर रहा हूं। मैं जिंदा तो हूं पर सिर्फ मौत का इंतजार कर रहा हूं। ऑफिस में भी मैनेजर था और घ...

पिंडदान

चित्र
  पिंडदान मैं एक हूं  और होना चाहता हूं एक से दो जैसे टूटती एक कोशिका और टूट कर हो जाती है एक से दो लेकिन,  बस ऐसे ही नहीं हो जाती  एक कोशिका  एक से दो  पहले समाहित करती है  खुद में अनेक एक  भोजन के रूप में और जब भर जाता है पेट पा लेती है पूर्णता  आकार की उसमें निहित पूर्णांश प्रेरित करता है उसे  अस्तित्व के प्रयोजनार्थ  कि आगे उसे निभानी है  समग्र व्यवस्था में भागीदारी और उस व्यवस्था के लिए  उसे हो जाना है एक से दो और वो हो ही जाती है एक से दो हां ऐसे ही मैं भी हो जाना चाहता हूं एक से दो कोशिकाओं से बना ये पिंड, ये शरीर   तो हो ही जाता है एक से दो हर बाप का  या हर मां का पर ‘वह’ नहीं हो पाता एक से दो जैसे मैं भी नहीं हो पाया बाप हो कर भी  एक से दो और न कभी हो पाऊंगा  शरीर के माध्यम से क्योंकि मैं शरीर नहीं मैं, मैं हूं जो सच्ची और सही समझ से,  पूर्ण शिक्षा से और  पूर्ण शिक्षक से होता है  एक से दो वरना  सिर्फ होते रहते हैं पिंड से पिंड  एक से दो नहीं हो पाता है इंसान से दूस...

ज़रूरत

चित्र
 ┈┉┅━❀꧁꧂❀━┅┉┈ ज़रूरत ┈┉┅━❀꧁꧂❀━┅┉┈ तुझे मेरी ज़रूरत है। मुझे तेरी ज़रूरत है। ज़रूरत से ये दुनिया है, बड़ी सबसे ज़रूरत है। ज़रूरत आदमी की है। ज़रूरत ज़िन्दगी की है। ज़रूरत दुःख के इस बाज़ार में, अदना हँसी की है। ज़रूरत खानदानी है। ज़रूरत की कहानी है। बुढ़ापे को ज़रूरत में ही, पूछे ये जवानी है। ज़रूरत से ही रिश्ते हैं। ज़रूरत पर जो हंसते हैं। ज़रूरत पर बिखरते हैं, ज़रूरत पर पनपते हैं। ज़रूरत पर भजन करते। ज़रूरत पर नमन करते। ज़रूरत पर ज़रूरतमंद, क्या क्या ही जतन करते। ज़रूरत मंज़िलों की है। ज़रूरत सब दिलों की है। है छोटी ज़िन्दगी लेकिन, ज़रूरत कई किलो की है। ज़रूरत हर किसी की है। ज़रूरत हर कहीं की है। ज़रूरत आसमां की तो, कभी होती ज़मीं की है। ज़रूरत जीत जाने की। ज़रूरत आजमाने की। ज़रूरत मुस्कुराने की, ज़रूरत घर ठिकाने की। ज़रूरत एक छत की है। ज़रूरत कुछ बचत की है। भरे पूरे घरों में अब, ज़रूरत एक मत की है। ज़रूरत श्वास की भी है। ज़रूरत आस की भी है। ज़रूरत लुप्त होते आजकल, विश्वास की भी है। ज़रूरत है सियासत की। ज़रूरत है बग़ावत की। ये दुनिया हो गई पापी, ज़रूरत है कयामत की। ज़रूरत गुफ्तगू की...

नमामी शिव, शिवः, शिवम

चित्र
 नमामी शिव, शिवः, शिवम नमामी शिव, शिवः, शिवम, नमामी चन्द्र शेखरं। हैं आदि अंत से परे, स्वयंभू शिव त्रिलोचनं। श्री गंगाधर, जगतपिता, त्रिशूल धारी शंकरं। वो देवों के भी देव हैं, नमामी दिग दिगम्बरं। हरेक कण में शिव ही हैं, हरेक क्षण में शिव ही हैं। हरेक तन में शिव ही हैं, हरेक मन में शिव ही हैं। वो व्याप्त सर्व ओर है, निशा है या कि भोर है। हृदय दया से पूर्ण है, पर आवरण कठोर है। गले में सर्प कुण्डली, जटा से गंग है चली। जो व्यक्ति धर्म युक्त है, करेंगे उसकी शिव भली। त्रिशूल डमरू धारते, वो दुष्टों को संहारते। हे भोले, शंभू, नील कंठ, देव पग पखारते। हृदय वृहद विशाल है, दयालु और कृपाल हैं। वो देवताओं के भी देव, काल के भी काल हैं। ये सृष्टि उनसे चल रही, गले गरल धरे वही। इधर, उधर, यहाँ, वहाँ, बसे वही हैं हर कहीं। जगत चलायमान है, ये भोले का विधान है। है शिव का हाथ जिसपे भी, वो बन गया महान है। नमः शिवाय बोलिए, प्रकाश मार्ग खोलिए। शरण में शिव की आइए, हृदय को शिव से जोड़िए। स्वरचित मौलिक रचना रामचन्द्र श्रीवास्तव कवि, गीतकार एवं लेखक नवा रायपुर, छत्तीसगढ़ संपर्क सूत्र: 6263926054

अपना घर

चित्र
  ******************** अपना घर ******************** घर बनाना और घर पाना, हर किसी की ख्वाहिश होती है। अपने घर का मालिक बनना, हर किसी की चाहत होती है। घर नहीं होने का दर्द उनसे पूछिए, जिनके पास घर नहीं। खुद की दीवारें, खुद की छत, खुद का दर नहीं। अपने घर की कुछ यादें, कुछ सपने होते हैं। सपने में घर, बागवानी, सब अपने होते हैं। जिनके पास अपना घर नहीं, उनके सपने चकनाचूर होते हैं। हकीकत में वो सपनों से, बहुत ही दूर होते हैं। ******************** स्वरचित मौलिक रचना अर्चना श्रीवास्तव कवयित्री नवा रायपुर, छत्तीसगढ़ ********************

वतन के वीर जवान

चित्र
 ******************* वतन के वीर जवान ******************** अचूक निगाह, देश की परवाह। साहसी और बलिदानी, वीर योद्धाओं की, अमर कहानी। दुश्मनों पर विजय, न कोई डर न भय। हो देश के लिए कुरबान, करे न्यौछावर अपनी जान। सरहद पर खड़ा, बन पत्थर सा सख्त, यही तो है हमारी, आजादी की कीमत। बम बारूद से घिरे, मौत से लड़ते है, जान देकर अपनी, देश की रक्षा करते है। दिया है भारत माँ को, यही तो वचन, लुटा देंगे हम देश की, रक्षा में जानो तन। ******************** स्वरचित मौलिक रचना अर्चना श्रीवास्तव कवयित्री नवा रायपुर, छत्तीसगढ़ ********************

वतन के वीरों को नमन

चित्र
  ┈┉┅━❀꧁꧂❀━┅┉┈ वतन के वीरों को नमन ┈┉┅━❀꧁꧂❀━┅┉┈ वतन के वीरों को नमन, खड़े सीमा पे जो तन के। हमारी श्वास है उनसे, खड़े रक्षा कवच बन के। वतन के वीरों को नमन, जो प्राणों पर सदा खेलें। खड़े, करते निगेहबानी, धूप, वर्षा, शरद झेलें। वतन के वीरों को नमन, जो कुनबा देश को मानें। ज़रूरत देश की हो तो, लुटा दें, छीन लें जानें। वतन के वीरों को नमन, जो पहले देश को रखते। न दें एक इंच भी भूमि, पराजय शत्रुबल चखते। वतन के वीरों को नमन कि जिनके दिल में भारत है। वतन पे जीने मरने की ही केवल दिल में हसरत है। वतन के वीरों को नमन, जो सच्चे देशबन्धु हैं। वतन की रक्षा को तत्पर, वही तो भारतेन्दु हैं। वतन के वीरों को नमन, जो घर को छोड़ कर आते। जो अपनें पारिवारिक रिश्तों में बस देश को पाते। वतन के वीरों को नमन, धर्म ही देश जिनका है। शौर्य, बलिदान में डूबा हुआ परिवेश जिनका है। वतन के वीरों को नमन, भरोसे की निशानी है। मिसालें वीरता की देश ने दुनिया ने जानी है। वतन के वीरों को नमन, जिन्हें जां से वतन प्यारा। जिन्हें पूजे, जिन्हें चाहे, सलामी दे वतन सारा। वतन के वीरों को नमन, है जिनका एक ही अरमां...

चाय होनी चाहिए

चित्र
  ┈┉┅━❀꧁꧂❀━┅┉┈ दिनांक: 04/07/2025 चाय होनी चाहिए ┈┉┅━❀꧁꧂❀━┅┉┈ उठते ही सुबह, हैलो हाय होनी चाहिए। एक प्याली हाथ में, चाय होनी चाहिए। सुनने वालों की भी, यही राय होनी चाहिए। गरमागरम खुशबुदार, चाय होनी चाहिए। टेन्शन तमाम हो, या हो रहा जुकाम हो। काली मिर्च, अदरक वाली, चाय होनी चाहिए। मेहमान चार हों, या वर्षा की फुहार हो, मिर्ची के पकौड़े और, चाय होनी चाहिए। ┈┉┅━❀꧁꧂❀━┅┉┈ स्वरचित एवं मौलिक रचना अर्चना श्रीवास्तव नवा रायपुर, छत्तीसगढ़ ┈┉┅━❀꧁꧂❀━┅┉┈

क्या करूँ कि उलझने सुलझती ही नहीं?

चित्र
  ┈┉┅━❀꧁꧂❀━┅┉┈ क्या करूँ कि उलझने सुलझती ही नहीं? ┈┉┅━❀꧁꧂❀━┅┉┈ क्या करूँ कि उलझने सुलझती ही नहीं? राह कोई बीच की निकलती ही नहीं। तूने धैर्य को भी आजमाया क्या? तेरे अपनों को भी कुछ बताया क्या? चिन्ता छोड़ चिन्तन किया तूने, खुद को खुद ही रस्ता दिखाया क्या? क्या करूँ कि ज़िन्दगी सरकती ही नहीं? राह कोई बीच की निकलती ही नहीं। क्या करूँ कि उलझने..... क्या भरोसा तुझको ईश पर है? क्या कोई उम्मीद तेरे घर है? हाथ जोड़ कर के मांग माफ़ी, गर कोई गुनाह तेरे सर है। क्या करूँ कि बेड़ियां ये कटती ही नहीं? राह कोई बीच की निकलती ही नहीं। क्या करूँ कि उलझने..... क्या पता कि ये तेरी परीक्षा हो? जिन्दगी की मिलने वाली शिक्षा हो। कोशिशों का साथ पकड़े रहना तू, क्या पता भविष्य और अच्छा हो? क्या करूँ कि मुश्किलें सिमटती ही नहीं? राह कोई बीच की निकलती ही नहीं। क्या करूँ कि उलझने..... हाथ में तेरे है तो फिकर कर। वरना चिन्ता छोड़ सारी उस पर। वो पिता है तुझको उतना देगा, जितना बोझ रख सके तू सिर पर। क्या करूँ कि खुशियां दिल में बसती ही नहीं? राह कोई बीच की निकलती ही नहीं। क्या करूँ कि उलझने..... नाउम्मीदि...

जगत हो ज्योतिर्मयी

चित्र
  ┈┉┅━❀꧁꧂❀━┅┉┈ दिनांक: 01/07/2025 शीर्षक: जगत हो ज्योतिर्मयी ┈┉┅━❀꧁꧂❀━┅┉┈ हर कोई प्रसन्न हो। ना कोई विपन्न हो। मन में जो भी हो दिखे, कुछ ना अप्रछन्न हो। सर्वजन विकास हो। ईर्ष्या द्वेष ह्रास हो। जीव के समूल से, शूल का निकास हो। व्यक्ति धीरवान हो। जातिगत समान हो। हो दया हृदय लिए, संस्कारवान हो। प्रेम से ही बात हो। करते नमन हाथ हो। कोई भी कहीं भी कार्य, ना कभी बलात हो। ना कहीं भी लोभ हो। ना हृदय में क्षोभ हो। व्यक्ति जो विकारहीन, वो जगत का शोभ हो। क्रोध का दमन करे। ईश का मनन करे। ऐसे व्यक्ति को अवश्य, व्यक्ति हर नमन करे। त्याग ही स्वभाव हो। वेद का प्रभाव हो। व्यक्ति व्यक्ति से जुड़े, न कहीं दुराव हो। पाप कर्म क्षीण हो। त्याज्य जीर्ण शीर्ण हो। पुण्य का प्रताप हो, पुण्य ही प्रकीर्ण हो। व्यक्ति हो दृढ़ निश्चयी। नारी हो ममतामयी। दोनों के सहयोग से, जगत हो ज्योतिर्मयी। ┈┉┅━❀꧁꧂❀━┅┉┈ स्वरचित मौलिक रचना रामचन्द्र श्रीवास्तव कवि, गीतकार एवं लेखक नवा रा यपुर, छत्तीसगढ़ संपर्क सूत्र: 6263926054 ┈┉┅━❀꧁꧂❀━┅┉┈

दबा सा प्रेम

चित्र
  घर को महल बनाने में, पति पत्नी का, दबा सा प्रेम भी, हाथों से निकल जाता है। पता ही नहीं चलता, कि ये जिम्मेदारीयाँ, कब घर की खुशियों को, निगल जाता है। जरा सा वक्त देकर देखो, अपने साथी को, दबा सा प्रेम , फिर से पिघल जाता है। ये जीवन है, परिस्थिति वही रहेगी, बस चेहरे बदल जाएंगे। खुल के जीयो, अपने हिस्से की जिन्दगी, जीवन कहाँ वापिस आएंगे। शामिल करो अपनी जिम्मेदारियों में, अपना ख्याल रखना, खिलखिलाना, गुनगुनाना, पता नहीं वक्त, कब बदल जाता है। घर को महल बनाने में, पति पत्नी का, दबा सा प्रेम भी, हाथों से निकल जाता है।

भक्ति में लीन मन

चित्र
  ┈┉┅━❀꧁꧂❀━┅┉┈ विषय: "भक्ति में लीन मन" ┈┉┅━❀꧁꧂❀━┅┉┈ ईश के छुएं चरण, ईश के भजें भजन, ईश की कृपा से हो, भक्ति में लीन मन। ईश ही प्रकाश पुंज, नभ गिरी धरा कुंज, भक्ति मार्ग से हो शुद्ध, पापी मलीन मन। ब्रह्मदेव ढालते हैं, विष्णुदेव पालते हैं, शिव संहार कर्ता हैं, चंचल मीन मन। जाने महिमा नाम की, कहता बातें काम की, ईश को भजे सदैव, उच्च कुलीन मन। ईश की कृति पवित्र, उच्च है तेरा चरित्र, ईश से जुड़ा हुआ तू, ना कर हीन मन। ईश से न फेर आंख, अंतर्मन में तू झांक, ईश से विमुख हो तो, धर्म विहीन मन। लोभ मोह क्रोध छोड़, पाप से तू नाता तोड़, स्मरण में ईश के हो, सदा तल्लीन मन। ईश में ही हो प्रयास, रोम रोम श्वास श्वास, ईश में रहे सदा ही, तेरा विलीन मन। सुन तेरी ही तू सदा, ईश के भजन तू गा, ईश को ही सौंप दे तू, स्व के अधीन मन। कर्म सौंप ईश को तू, पूज जगदीश को तू, ईश का ही ध्यान कर, होगा नवीन मन। मन भरा विकार हो, संदुषित विचार हो, ईश को न मानता हो, वो भाग्यहीन मन। बाद काम दूजा कर, आगे ईश पूजा कर, रात्रिकाल सायंकाल, प्रातःकालीन मन। ┈┉┅━❀꧁꧂❀━┅┉┈ स्वरचित मौलिक रचना रामचन्द्र श्रीवास्तव कवि, गीतकार एवं ...