मकड़जाल
**मकड़जाल**
मकड़ी से जो, खेल शुरू हुआ,
अब इंटरनेट तक, पहुंच गया।
फैला जाल, घर घर तक इसका,
पूरा विश्व, जाल में लिपट गया।
जैसे मकड़ी, जाल बनाती फिर,
खुद ही, उस जाल में फंस जाती।
वैसे ही,मानव ने जाल बनाया है,
खुद अपनी गर्दन, फंसवाया है।
मानव मकड़ी में, है कुछ अंतर,
मकड़ी को, नैसर्गिक मिला हुनर।
पर मानव ने, ऐसा जाल बुना,
उपर वाला भी, खा गया चक्कर।
इस जाल से, अब तो बचने का,
कोई सार्थक, राह नहीं दिखता।
अब ईश्वर ही, दिलाएंगे मुक्ति,
फिर लेंगे कोई, अवतार लगता।
✍️ विरेन्द्र शर्मा
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