“राम” अब तक पढ़ न पाया क़ायदा-ए-ज़िन्दगी

मन में कभी उल्लास तो, चुभता कभी एक शूल है।
निःशब्द सा एकाकीपन कभी हृदय को झकझोर दे,
कभी सुखद अनुभव से हृदय मायूसियों को तोड़ दे।
कभी अनमनी, अनजान सी राहों पर चलती ज़िन्दगी,
कभी बन के सपने सुरमई आँखों में पलती ज़िन्दगी।
कभी ज़िन्दगी लगती है जैसे हो मुलायम, नर्म सी,
कभी तोड़ देती है हदें यह ज़िन्दगी बेशर्म सी।
कातिलाना मुस्कुराहट से ये हँसती है कभी,
बन के खुशियों का समंदर दिल में बसती है कभी।
है कोई जो जानता है ज़िन्दगी का फ़लसफ़ा,
क्यों कभी दिल खुशनुमा है, क्यों कभी है ग़मज़दा।
सोच कर हैरान हूँ कि चीज़ क्या है ज़िन्दगी,
“राम” अब तक पढ़ न पाया क़ायदा-ए-ज़िन्दगी।
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