अल्फाज़ बना बैठे हैं हम



डुबो कर रोशनाई में, कलम की आशनाई में औ कागज़ की गवाही में,
मिला लफ्ज़ को लफ्जों से, अल्फाज़ बना बैठे हैं हम।


अंजाम से हो बेखबर, मंज़िल से हो कर बेफिकर, है लापता अपनी डगर, 
फिर भी सुनसान अंधेरों में, आगाज़ बना बैठे हैं हम।


मौसिक़ी की चाह में, दर्द-ए-दिल की आह में, चाहतों की राह में,
खुद को खुद से ही यहाँ, एक साज़ बना बैठे हैं हम।


खुद में हो कर गुमशुदा, दुनिया से होकर के जुदा, हो दिल ही दिल में ग़मज़दा,
कुछ कर ना सके तो खुद को ही, एक राज़ बना बैठे हैं हम।


बेख़ौफ़ जिया जाए कैसे, यह ज़हर पिया जाए कैसे औ ज़ख्म सिया जाए कैसे,
अब “राम” नया एक जीने का, अंदाज़ बना बैठे हैं हम।

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