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मात वीणा के स्वरों से (सरस्वती वंदना)

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  मात वीणा के स्वरों से कुछ स्वरों को खींचकर, राम की विनती यही है, कन्ठ में भर दीजिए। आपका यह हंस वाहन है धवल शुभता लिए, मेरे जीवन को भी मैया शुभ धवल कर दीजिए। आप से आरम्भ शुभ है आप बुद्धि प्रदायिनी। आप के सेवक है हम सब मात वीणावादिनी। उच्च कोटि की हो रचना, उच्च कोटि विचार हों।  कुविचारों को मिटाओ, श्वेत कमल निवासिनी। सत्य के प्रहरी बनें हम, सत्य की दें लौ जला, इतने सक्षम बन सके हम मात यह वर दीजिए। मात वीणा के स्वरों से................................ नेत्र से हो दया की वृष्टि मात हे ममतामयी। आपकी हो कृपा की दृष्टि कर्म शुभ कर दें कई। शब्द से लब्ध व प्रबुद्ध और शुद्ध बुद्धि दीजिए। कि करें हम लोकहित में नित्य प्रति रचना नई। धर्म के संग्राम में हम सत्य के साधक बने, कुविचारों को जो मारे माँ धनुष शर दीजिए। मात वीणा के स्वरों से................................ आपसे आशीष ले कर जग सुवासित हम करें। आपके वन्दन से स्वयं को धर्म पोषित हम करें। जो है भूले और भटके मार्ग हम दिखला सकें। आपका गुणगान गाकर परमानंदित हम करें। आपकी आराधना कर आपकी कर साधना। आपके चरणों में बैठूँ मात अवसर दीजिए। मात...

मैं कमाने मगर दूर जाता रहा।

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  ┈┉┅━❀꧁꧂❀━┅┉┈ मैं कमाने मगर दूर जाता रहा। ┈┉┅━❀꧁꧂❀━┅┉┈ घर मेरा मुझको हर दम बुलाता रहा। मैं कमाने मगर दूर जाता रहा। घर को उम्मीद की रौशनी तो मिले, इसलिए खुद को ही मैं जलाता रहा। जान ले ना ये दुनिया मेरे सारे ग़म। जो ज़रूरत ने मुझपे किए हैं सितम। अश्क आंखों में अपनी छिपाए हुए, मैं बिना बात ही मुस्कुराता रहा। वो दीवार और छत की मरम्मत कहीं। ऑपरेशन से माँ की हो आँखें सही। जिम्मेदारी बड़ी कंधे नादान हैं, मैं मगर फिर भी जिम्मा उठाता रहा। घर में बीमार माँ छोटे भाई बहन। उनकी शादी पढ़ाई व पोषण भरण। उनके खर्चे बराबर चलें इसलिए, टूटी चप्पल महीनों चलाता रहा। वक्त की आंधियों ने धकेला मुझे। कर दिया दूर घर से अकेला मुझे। दिल में अपने मुकद्दर पे रोया बहुत, सामने सबके पर खिलखिलाता रहा। ┈┉┅━❀꧁꧂❀━┅┉┈ स्वरचित मौलिक रचना रामचन्द्र श्रीवास्तव कवि, गीतकार एवं लेखक नवा रायपुर, छत्तीसगढ़ संपर्क सूत्र: 6263926054 ┈┉┅━❀꧁꧂❀━┅┉┈

माँ शारदे वन्दना

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  "राम पुकारे आपको, माँ सादर सम्मान। जोड़ खड़ा कर द्वार पर मांगे यह वरदान। भक्तों की जिह्वा करे, वन्दन और आह्वान। कृपा, दया हो आपकी, करें लक्ष्य संधान।" माँ शारदे, माँ शारदे स्वर लहरियों का वर दीजिए। माँ शारदे, माँ शारदे स्वर मेरे गीतों में भर दीजिए। मोती से जैसे बनती है माला  अक्षर से शब्द और कविता लिखूँ। चलता है जीवन ज्यों अनवरत, मैं सार्थक काव्य सरिता लिखूँ। माँ शारदे, माँ शारदे इतनी कृपा तो कर दीजिए। माँ शारदे, माँ शारदे स्वर मेरे गीतों में भर दीजिए। ज्यों दीप जलता अकेले भले, मैं भी तमस से यूं लड़ सकूं। जग को प्रकाशित करता रवि, स्वयं को प्रकाशित मै कर सकूं। माँ शारदे, माँ शारदे वाणी में शुभ शब्द धर दीजिए। माँ शारदे, माँ शारदे स्वर मेरे गीतों में भर दीजिए। ज्यों सीप भीतर मोती बने, मेरा हृदय संस्कारित रहे। जिह्वा पे गुणगान हो आपका और आप पर आधारित रहे। माँ शारदे, माँ शारदे चरणों में मुझको घर दीजिए। माँ शारदे, माँ शारदे स्वर मेरे गीतों में भर दीजिए। माँ शारदे, माँ शारदे स्वर लहरियों का वर दीजिए। माँ शारदे, माँ शारदे स्वर मेरे गीतों में भर दीजिए।

भ्रष्टाचार

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  ┈┉┅━❀꧁꧂❀━┅┉┈ भ्रष्टाचार ┈┉┅━❀꧁꧂❀━┅┉┈ भ्रष्टाचारियों की आज देश में भरमार है। पैसों और ताकत का भूत सिर पे सवार है। सुबह शाम पैसा खाएं लेते ना डकार हैं। भेड़ की चमड़ी ओढ़ ढूंढते शिकार हैं। पैसों और ताकत... दफ्तर है सरकारी, लुटती जनता बेचारी। घूस ले के काम करें, वरना करें मक्कारी। पेट है गुब्बारे सा, खा के घुस की कमाई, ऐसा लगे जैसे फट पड़ने को तैयार है। पैसों और ताकत... लॉलीपॉप, मीठी गोली दें चुनावी वादों में। जनता की शक्ल तक न रखते अपनी यादों में। वोट पूर्व रोडपती, जीत कर करोड़पति, ये सफेदपोश जानें कैसा चमत्कार है। पैसों और ताकत... खाकी वर्दी, काला कोट, जाने कब किसे दें चोट। भ्रष्टाचार के पुरोधा, नीयत में जिनकी खोट। पक्ष और विपक्ष में ये भेदभाव के बिना ही, दोनों को ही लूटने में दोनों ही शुमार है। पैसों और ताकत... जाली काम, फर्जीवाड़ा, करते देश का कबाड़ा। जनता जनार्दन का चूसते हैं खून गाढ़ा। इस तरह के कर्म कर के रोज बद्दुआएं लेना, "राम" कहे इस तरह से जीने पे धिक्कार है। पैसों और ताकत... ┈┉┅━❀꧁꧂❀━┅┉┈ स्वरचित मौलिक रचना रामचन्द्र श्रीवास्तव कवि, गीतकार ए...

नशा नाश की जड़ है

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  ┈┉┅━❀꧁꧂❀━┅┉┈ नशा नाश की जड़ है ┈┉┅━❀꧁꧂❀━┅┉┈ देसी पी के नाली में पड़े हैं बरखुरदार। इंग्लिश पी के इंग्लिश में बतियाते धुंआधार। गुटका खा के करते हैं दीवारों को बेकार। सिगरेट के धुंए के छल्ले छोड़ें लगातार। सड़कों पे गलियों में होती है छीछालेदार। चढ़ते ही नशा ये तो बन जाते नम्बरदार। सारे नशेड़ी मिल के लगाते हैं दरबार। गाली गप्पड़ है इनका पसंदीदा हथियार। नशे की खातिर करते ये घर में अत्याचार। माँ बहनों को पीटें जब हो पैसे की दरकार। रात को मोहल्ले में मचाएं हाहाकार। इनकी खबरों से सुबह पटे हैं अखबार। दारू पी के गाड़ी भी चलाएं फुल रफ्तार। रोको टोको इनको तो लड़ मरने को तैयार। गंदगी अभियान के महान पैरोकार। नशा नाश की जड़ है पर ये कहते अमृत धार। खैनी रगड़ें होठ में दबाएं ये सरकार। पहले मजा बाद में हैं कैंसर के बीमार। नशे के कारण हो जाते हैं ये कर्जेदार। और गिर जाता है इनका जो ऊंचा था किरदार। नशे की गिरफ्त में ही बदले है व्यवहार। करते चोरी लूटमार और बलात्कार। दूर हो जाते हैं इनसे सारे रिश्तेदार। और तन्हा रह जाता है इनका ही परिवार। नशा नाश की जड़ है लाओ खुद में ही सुधार। परिवार को दो तुम अपने ...

क्या आप लेखक हैं?

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मुझे बचपन से ही मंच पर बोलने का शौक था। कालोनी में और प्राथमिक विद्यालय में सांस्कृतिक कार्यक्रमों में उत्साहपूर्वक भाग लिया करता था और यही क्रम आगे के विद्यार्थी जीवन में भी चलता रहा हालांकि परिवार की ओर से इस विषय के प्रति उदासीनता ही रही। विद्यार्थी जीवन जहाँ एक स्वर्णिम युग की तरह था वहीं बड़े होने पर जिम्मेदारी के बोझ तले मुझे अपने शौक को कैद कर देना पड़ा। इसी तरह जिन्दगी चलती रही लेकिन मेरी कलम भी कभी बहुत कम तो कभी ज्यादा लेकिन निरन्तर चलती रही परन्तु कभी मंच नहीं मिल सका। 45 वर्ष की अवस्था में एक रोज मैं बस में एक काव्य रचना लिख रहा था कि तभी बगल में बैठे हुए अखिलेश तिवारी जी ने मुझसे सवाल किया, "क्या आप लेखक हैं"? और मैंने कहा "हाँ"। बस उसी क्षण से जिन्दगी ने एक नई करवट ली। आज मैं मंच पर काव्य पाठ करता हूँ। मेरी रचनाएँ समाचार पत्रों में भी छपती रहती है। मैं एक साहित्यकार के रूप में कई बार पुरस्कृत एवं सम्मानित हो चुका हूँ। सच है कि किस्मत से ज्यादा और समय से पहले किसी को कुछ नहीं मिलता।

हिन्दी संरक्षण क्यों आवश्यक है?

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  हिन्दी संरक्षण क्यों आवश्यक है? "हिन्दी संरक्षण क्यों आवश्यक है?" यह आज के दौर में समझने, जाँचने और विचार करने योग्य महत्वपूर्ण प्रश्न है। हिन्दी हमारी राष्ट्रभाषा, मातृभाषा होने के साथ साथ हमारी संस्कृति व परम्पराओं की परिचायक भी है। महात्मा गांधी जी के शब्दों में कहा जाए तो राष्ट्रभाषा के बिना राष्ट्र गूंगा है और इसमें कोई अतिशयोक्ति भी नहीं है। यदि बात हिन्दी के संरक्षण की आती है तो हमें लॉर्ड मैकाले के इस सिद्धांत को भी नहीं भूलना चाहिए कि किसी भी राष्ट्र को गुलाम बनाए रखने के लिए या कमज़ोर करने के लिए उस राष्ट्र की संस्कृति, ज्ञान एवं भाषा पर कुठाराघात किया जाना आवश्यक है और इसमें उनकी सफलता जग जाहिर है। आज के समय में अधिकाधिक संख्या में लोग हिन्दी की तुलना में अंग्रेजी भाषा को महत्व देते है। इसी तरह देखा जाए तो कुछ राज्यों में क्षेत्रीय भाषी लोग हिन्दी भाषी लोगों से मारपीट तक करते नजर आते है, जिसका ताज़ा उदाहरण महाराष्ट्र है। हमारा हिन्दी से दोयम दर्जे का व्यवहार करना, हमारी अपनी ही जड़ों से दूर होना है और एक छोटा बच्चा भी इतना जानता है कि जड़ों के बिना पेड़ का कोई अस...

लघुकथा (चोर)

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रविवार होने के कारण आज देर तक सोया रहा क्योंकि मेरे जैसे नौकरीपेशा व्यक्ति के लिए रविवार ही अंधे की लाठी होता है। छह दिन तो अंधेरे मुँह उठकर तैयार होकर सिर पर पाँव रखकर ऑफिस भागना पड़ता है जहाँ बॉस और सीनियर नाक में दम किए रहते हैं परन्तु एक दिन मैं घोड़े बेच कर सोता हूँ। यह रविवार भी चार दिन की चांदनी की तरह कब बीत जाता है पता ही नहीं चलता। यह रविवार भी कुछ ऐसा ही था। मैं अपने बिस्तर पर पड़ा चैन की बंशी बजा रहा था कि अचानक बाहर के शोर से मेरे रंग में भंग पड़ गया और मैने अक्ल के घोड़े दौड़ाने शुरू कर दिए। जब किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँचा तो उधेड़बुन में मैं घर से बाहर आ गया। मैंने देखा कि सामने एक बारह तेरह वर्ष का लड़का है जिसके चेहरे पर हवाइयां उड़ रही है और कुछ लोगों की भीड़ उसकी गर्दन पर सवार थी फिर भी वह लड़का भीड़ के सामने घुटने नहीं टेक रहा था। मैंने जिज्ञासावश घटना के बारे में जानना चाहा तो भीड़ में से किसी व्यक्ति ने बताया कि यह लड़का चोर है और यह लाला जी की दुकान से पाँच सौ चालीस रुपए चुरा कर नौ दो ग्यारह होना चाहता था परन्तु हमने मिल कर इसे पकड़ लिया। उस व्यक्ति ने आगे कहा कि...

मैं हिन्दू हूं

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  मैं हिन्दू हूं। मैं ही भारत के जड़ चेतन का बिंदु हूं। मैं हिन्दू हूं। मैंने ही सबको शरण दिया, डूबों की नौका पार किया, मैं पर्वत, मैं गगन, मैं ही वृक्ष और सिंधू हूं, मैं हिन्दू हूं। मैं दयावान जग का कल्याण, मैं विश्वगुरू मैं सबका ध्यान। मैं कृष्ण राम का अंश हूं, मै ही भगवा, मैं ही मां धरती का रक्त हूं। जिसने संसार को धर्म दिया, मै उसी धर्म का अक्षर बिंदू हूं। मैं हिन्दू हूं। मैं क्षमावान, मैं दयावान, मैं ही असुरों से बलवान। मैने ही मुगलों, अंग्रेजो को शरण दिया, मैं प्रतिपालक हूं, मैंने ही सबका पोषण किया। किंतु आज शरणागत के लिए, मैं ही किन्तु परन्तु हूं। मैं हिन्दू हूं। मैं ही भारत के जड़ चेतन का बिंदु हूं। मैं हिन्दू हूं।

तुम्हारी ख्वाहिशें तो खूबसूरत सी परी है

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 ┈┉┅━❀꧁꧂❀━┅┉┈ तुम्हारी ख्वाहिशें तो खूबसूरत सी परी है ┈┉┅━❀꧁꧂❀━┅┉┈ तुम्हारी ख्वाहिशें तो खूबसूरत सी परी है। तुम्हारी मंजिलें ज़ंजीर में जकड़ी पड़ी है। कि जिस पर एक बड़ा आलस्य का ताला पड़ा है। तू कुछ करके बता मुर्दा है कि जिंदा खड़ा है। तेरी उम्मीद नन्ही सी परी आई है बन कर। तेरी किस्मत के पन्ने खोलना चाहे जो तन कर। वहाँ पर एक टालमटोल का ताला लगा है। तू कुछ कर के बता कि सो रहा है या जगा है। तेरे सपनों में आ के एक परी कुछ बोलती है। वो तेरी खुशियों के पन्ने ज़रा से खोलती है। पुराने दर्द की ज़ज़ीर और ताला वहाँ पर। तुम अपने आप से पूछो खड़े हो तुम कहाँ पर। तेरा सच तो तुझे आज़ाद करना चाहता है। मगर तू खुद के ही भीतर कहीं डूबा हुआ है। सुनहरे हर्फ से लिखी गुलामी की कहानी। बता क्या चाहता था ऐसी ही तू ज़िन्दगानी? तू सुन ले ध्यान दे चाबी तेरे ही पास तो है। वो ताला तेरे आगे कुछ नहीं तू खास तो है। कर्म कर दौड़ चल तुझको सफल होना पड़ेगा। यूं तालों बंद किताबों में बता कब तक रहेगा? ┈┉┅━❀꧁꧂❀━┅┉┈ स्वरचित मौलिक रचना रामचन्द्र श्रीवास्तव कवि, गीतकार एवं लेखक नवा रायपुर, छत्तीसगढ़ संपर्क सूत्र: 6263926054 ┈┉...

बेटियां

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 ************************ बेटियां ************************ आजकल कहते कन्या उपहार। लक्ष्मी का अवतार। कन्या के जन्म पर देते हैं बधाई। कहते हैं आपके घर नन्हीं परी आई। एक वो भी दिन था। मार देते थे भ्रूण के रूप में। जला देते थे दुल्हन के रूप में। एक आज का दिन है। बेटियों को पढ़ाया जा रहा है। कॉपी किताब दिलाया जा रहा है। पहले बंद रखते थे मकान में। आज उड़ती है खुले आसमान में। आजादी ऊंचा और ऊंचा उड़ने की। पढ़ लिख कर कुछ करने की। हिम्मत बुलंदियों को छू जाने की। अपने पंखों को ज्यादा से ज्यादा फैलाने की। आओ इस आजादी का स्वागत करें। बदलाव को स्वीकारने की हिम्मत करें। इस आजादी का गुणगान करें। आओ बेटियों का सम्मान करें। ************************ स्वरचित मौलिक रचना अर्चना श्रीवास्तव कवयित्री रायपुर, छत्तीसगढ़ ************************

तू मेरा अक्स है मुझ पर गया है

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  ┈┉┅━❀꧁꧂❀━┅┉┈ तू मेरा अक्स है मुझ पर गया है ┈┉┅━❀꧁꧂❀━┅┉┈ तू मेरी ज़िन्दगी का आईना है। तू मेरा अक्स है मुझ पर गया है। मेरा दिल तो तुम्हारे बीच ही है, बदन मेरा मगर दफ्तर गया है। न मिलना चाहता था मैं दुबारा, मगर वो आज फिर मिल कर गया है। वफादारी की कसमें खा रहा था, वो मुझको लूट अपने घर गया है। है मुझसे खौफ में मेरा ही कातिल, मेरे किस्सों को सुन कर डर गया है। वो मेरे कत्ल का सामान ले कर, ज़रा ढूंढो कहां पर मर गया है। ┈┉┅━❀꧁꧂❀━┅┉┈ स्वरचित मौलिक रचना रामचन्द्र श्रीवास्तव कवि, गीतकार एवं लेखक नवा रायपुर, छत्तीसगढ़ संपर्क सूत्र: 6263926054 ┈┉┅━❀꧁꧂❀━┅┉┈

सफलता

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  ┈┉┅━❀꧁꧂❀━┅┉┈ सफलता ┈┉┅━❀꧁꧂❀━┅┉┈ सफलता को ज़रूरी है सफलता की प्रबल इच्छा। सफलता को ज़रूरी सुनियोजित और सही शिक्षा। सफलता को ज़रूरी है बदलना अपनी आदतें। सफलता को ज़रूरी है चुनें हम नेक रास्ते। सफलता को ज़रूरी है कि अपने लक्ष्य को जानो। कोई कहता हो कर सकते नहीं पर तुम नहीं मानो। सफलता के लिए विश्वास कर और छोड़ घबराना। सफलता को ज़रूरी है तेरा हद से गुजर जाना। सफलता की है जननी असफलता याद रखना। सफलता चाहिए तो असफलता को भी चखना। सफलता को ज़रूरी है इरादा भी सबल हो। जो करना है अभी करना न फिर यह आजकल हो। सफलता के लिए खुद का अटल रहना जरूरी है। सफलता के लिए घर से निकल रहना जरूरी है। सफलता चाहते हो तो निरन्तर कर्म करना है। हुनर को सीखना संघर्ष में तप कर निखरना है। सफलता प्राप्त होती है कभी छीनी नहीं जाती। सफलता चंचला रुकती नहीं रोकी नहीं जाती। सफलता टिक सके लंबे समय तक ये हुनर सीखो। सभी से प्रेम से बोलो मदद करना बशर सीखो। प्रयासों में कमी करना नहीं तू धैर्य धारण कर। सुबह उठ रोज अपने लक्ष्य का ऊंचा उच्चारण कर। सफलता के बहुत से मायने हैं व्यक्ति आधारित। वही सच्ची सफलता है हो जिससे सर्वजन का हित...

हो सफल

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********** हो सफल ********** हो प्रबल, हो अटल, हो अचल, हो सफल। कह रहा, धरातल, कर्म कर, हो सफल। हो सबल, पी गरल, आ निकल, हो सफल। आज अभी, ना हो कल, रुक न तू, हो सफल। तू सम्हल, तू बदल, ना चपल, हो सफल। ********** स्वरचित मौलिक रचना अर्चना श्रीवास्तव कवयित्री नवा रायपुर, छत्तीसगढ़ **********

माँ की रचना

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  माँ की रचना ईश्वर ने प्रेम बांटने के लिए की माँ की रचना। कौन था वो जिसने बिगाड़ दी माँ की संरचना।। धरती, गाय, स्त्री सबको माँ की रचना माना गया है। फिर क्यों यह पाप? गौ-हत्या और बेटी-बहु को मारा गया है।। माँ की रचना के साथ प्रेम, एकता, परिवार बनाया गया है। फिर क्यों माँ के रहते ही, स्त्री के मन में डर और मानसिक तनाव बढ़ाया गया है।। यदि आपकी माँ सम्मान, प्रेम और दया की पात्र है। याद रहे, मैं और मेरी माँ भी सम्मान, प्रेम और दया की पात्र हैं।। मैं और सिर्फ़ मैं का अभिमान करने वालों ने, बदल दी माँ की रचना। दुर्भाग्य, माँ होते हुए भी स्त्री ने खुद ही, बदल दी माँ की संरचना॥

शहीद

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  शहीद पद चिन्ह जिनके देश की सीमा बना रहे हैं। वो नाम क्यों इतिहास से छुपाए जा रहे हैं।। बर्फ, पहाड़, रेत, जंगल बड़ी तकलीफ है जहाँ। गाँव की मिट्टी छोड़कर फौजी रहता है वहाँ।। बीवी, बच्चे, माँ-बाप, बहन-भाई छूट जाते हैं। देश की रक्षा के ख़ातिर कई नाते टूट जाते हैं।। लरज़ते हाथ, राखी, बोझिल आँखें, राह तकती हैं। फोन पे आवाज़ "घल आओना" सवाल करती है।। कभी तो सलामत वो शरीर के साथ आ पाता है। कभी लिपटे तिरंगे में शरीर से पहले आ जाता है।। काश कि उसके चरणों को मैं पल-पल छूता होता। काश कि उसके चरणों का मैं काला जूता होता। ।

ख़याली लकीरें

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  *ख़याली लकीरें* ज़मीन, फिजाओं  और समंदर पर जो लकीरें दिखती नहीं खींच दी है  कुछ ख़ुदग़र्ज़ों ने अपनी ऊंची ऊंची  नाकों के लिए जिन्हें... न इंसान समझ में आया न इंसाफ  और न ही इंसानियत  बन गए है वो हुक्मरान  और सबब–ए–हैवानियत ये गुनाह है... चंद सिक्कों की लालच दे  इंसान को मशीन बनाना उसमें सोचने समझने की ताकत छीन  हर हुक्म पे कहलवाना यस सर और उसे कर देना खड़े उन खयाली लकीरों पर गुस्सा, गुरूर और दुश्मनी,  भरकर ग़ज़ब है... इस खयाली लकीरों के  इस तरफ कत्ल कत्ल है कातिल को सज़ा है  और उस पार का कत्ल  साहस है रुतबा है इनाम और चक्रों की रज़ा है अरे... हर कोई होता है  सुहाग, बाप या भाई किसी न किसी का  यह बात तो साफ है फिर ये कैसा इंसाफ है? - अनीस ‘इंसान’

परायों में अपनापन

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  परायों में अपनापन मेरे चेहरे की हँसी गायब हो जाती है, जब मैं ढूंढती हूँ परायों में अपनापन। आँखें नम हो जाती हैं याद करके, अपनों के साथ बिताया बचपन।। काम, जिम्मेदारी, ताने, नाराजगी, बदतमीजी सब मेरे हिस्से। ये है मेरी जबानी परायों में, अपनापन ढूंढने के किस्से।। जब सुखमयी फैसले और सुखी जीवन का, कारण मुझे मानते ही नहीं। मेरे आत्मसम्मान के हनन का, कारण जानते ही नहीं। तब मैं कहती हूँ कि, परायों में अपनापन है नहीं।। परायों में अपनापन ढूंढ कर, जीवन में कमी रह जाती है। दुर्भाग्य है मानव का, परायों में अपना ढूंढ कर, आंखों में नमी रह जाती है। ।

माँ का प्यार

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 ********** माँ का प्यार ********** अपने बच्चों पर माँ अपनी ममता यूं बरसाती है। मानो यह आकाश धरा पर, वर्षा की बूंदें बरसाता। अपना आंचल फैला कर के, ऐसे प्यार लुटाती है। मानो नदियों में पवित्र जल, बिना रुके ही बहता जाता। माँ छुटपन में ही बच्चों में, संस्कार भर देती है। मानो खाद जरूरी लेकर, बीज एक पौधा बन जाता। हर एक अवस्था पर ही माँ की, छाया सिर पर रहती है। मानो धरती का संबल ले, पौधा एक पेड़ बन जाता। लाड़ लड़ाती, डांट पिलाती, कभी प्यार से समझाती। मानो कि पूरी दुनिया की, पूरी दुनिया ही है माता। बच्चे का भी जहां वहीं तक, जहाँ जहाँ दिखती है माता। मानो माँ के आकर्षण से, बच्चा खुद ही खींचता आता। ********** स्वरचित मौलिक रचना अर्चना श्रीवास्तव कवयित्री नवा रायपुर, छत्तीसगढ़ **********

कल्पना के पंख

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 ┈┉┅━❀꧁꧂❀━┅┉ कल्पना के पंख ┈┉┅━❀꧁꧂❀━┅┉┈ तुमसे मिलकर, दिल मेरा, जाने कहाँ गुम हो गया, मानो कोई कल्पना के पंख लेकर उड़ चला। ज़िन्दगी बेरंग थी, तुम आ गए रंग आ गया, मानो अंधियारे को कोई चीरता रौशन दिया। चेहरे की मासूमियत, नटखट ये अंदाज ए बयां, मानो जैसे कि कन्हैया कर रहा अठखेलियां। ज़िन्दगी कागज़ है जिसपर तुमने दी निशानियां, मानो चित्रकार कोई करता चित्रकारियां। गौरवर्णी गाल पर एक श्यामवर्णी तिल धरा, मानो बर्फीली सतह पर अकड़ कर कोई खड़ा। गेसुओं के कोर पर पानी की बूंदों का धड़ा, मानो मंगलसूत्र कोई खास हीरों से जड़ा। देखते ही देखता मैं एकटक तुमको रहा, मानो एकदम से खज़ाना देख कोई हिल गया। नख हैं लंबे धारती हैं लंबी, कानी उंगलियां, मानो तीक्ष्ण हथियारों का ही ज़ख़ीरा मिल गया। हंसना, रोना, रूठना, और फिर झगड़ना, मानना, मानो कला का एक धनी किरदारों में डूबा पड़ा। तिरछी आंखों से कभी वो देखना मुझको तेरा, मानो तीरंदाज़ कोई हो निशाना ले रहा। जागती आंखों में भी केवल तुम्हारा अक्स सा, मानो कोई ख्वाब में ही हो हक़ीक़त जी रहा। प्रणय निवेदन मेरी जिद और दिल तुम्हारा पिघल रहा, मानो ...

रिश्ते

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 ********** रिश्ते ********** कुछ दर्द मिला, कुछ ज़ख्म मिले, कुछ अपनों के ही ताने। कुछ लोगों ने की साजिश तो, कुछ हमको लगे गिराने। कुछ लोगों ने हमसे दूरी, करने के किए बहाने। कुछ ने हमको बदनाम किया, कुछ लगे हमें ठुकराने। हमने जब उनसे पूछा तो, वो उल्टा लगे दबाने। क्यों सुनते नहीं हमारी वो, बस लगे हैं अपनी गाने। बतलाओ मैं ही पागल हूँ, या लोग हुए दीवाने। क्या हमसे उन्हें शिकायत है, क्या क्या शिकवे हैं जाने? हम फिर भी कतरन सिल सिल कर, रिश्तों को लगे बचाने। रिश्तों की कलियां चुन चुन कर, हम उनको लगे निभाने। ********** स्वरचित मौलिक रचना अर्चना श्रीवास्तव कवयित्री नवा रायपुर, छत्तीसगढ़ **********

मैं क्यों आया हूँ?

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 मैं क्यों आया हूँ? जाति धरम और पैसों की दीवार गिराने आया हूँ मैं आशिक सच्चाई का मैं इश्क लुटाने आया हूँ ग़ुलाब की कलम से कलम कर कलम से लिखी आयते मोहब्बत इस दुनिया को पढ़ाने आया हूँ मज़बूत दिल, मज़बूत कंधे, मज़बूत इरादे भी हैं कुदरती कानून की चादर सर पे सजाने आया हूंँ बाज़ुओं में मेरी ताक़त भरी इस ऊपर वाले की बाज़ू वाले के साथ सुनहरी फसल उगाने आया हूँ दिल में अक़ीदा और आँखो में मंज़िले इंसानी है मैं ज़मीं पे सदाकत के फूल खिलाने आया हूँ 'इंसान' हूँ मैं औक़ात मेरी हर शय से ऊंची है दोज़ख भी फूंकी है अब जन्नत बनाने आया हूँ

मेरी छोटी सी दुनिया

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 "मेरी छोटी सी दुनिया" छोटी ही सही पर मेरी दुनिया मेरे रुकने से रूकती है मेरे चलने से चलती है। मेरी दुनिया में उंगली की गिनती के कुछ लोग हैं जो इस दुनिया में मेरे अपने हैं जिनके लिए मैं जीता हूं  और शायद मर भी सकता हूं इन्हें फर्क पड़ता है मेरी खुशी और मेरे गम से इन्हें फर्क पड़ता है मेरे बीमार पड़ने से यहां तक कि मेरी वजन से इन्हें फर्क पड़ता है जब मैं खाना नहीं खाता हूं जब मैं नज़रे चुराता हूं जब मैं गुस्सा हो जाता हूं या जब मैं मुस्कुराता हूं हां इन्हें फर्क पड़ता है मेरी इस दुनिया की सास-बहू में, दादा-पोते में, मां-बेटे में, भाई-बहनों में, देवरानी-जेठानी में, ननंद- भाभी में, और सभी रिश्ते में मेरे होने ना होने से फर्क पड़ता है बस यही सोच सोच कर मैं जिंदा हूं, कई खुदखुशी के  ख्याल के बाद भी मैं जिंदा हूं. पर सच कहूं कड़वा है पर सच है कि मैं सिर्फ जिंदा हूं कि मुझे उतारा गया था जमीन पर एक बड़े मकसद के लिए ना वो मकसद मिला ना उसकी कोई मंजिल  ना कोई रास्ता इसलिए सांस दर सांस मैं मर रहा हूं। मैं जिंदा तो हूं पर सिर्फ मौत का इंतजार कर रहा हूं। ऑफिस में भी मैनेजर था और घ...

पिंडदान

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  पिंडदान मैं एक हूं  और होना चाहता हूं एक से दो जैसे टूटती एक कोशिका और टूट कर हो जाती है एक से दो लेकिन,  बस ऐसे ही नहीं हो जाती  एक कोशिका  एक से दो  पहले समाहित करती है  खुद में अनेक एक  भोजन के रूप में और जब भर जाता है पेट पा लेती है पूर्णता  आकार की उसमें निहित पूर्णांश प्रेरित करता है उसे  अस्तित्व के प्रयोजनार्थ  कि आगे उसे निभानी है  समग्र व्यवस्था में भागीदारी और उस व्यवस्था के लिए  उसे हो जाना है एक से दो और वो हो ही जाती है एक से दो हां ऐसे ही मैं भी हो जाना चाहता हूं एक से दो कोशिकाओं से बना ये पिंड, ये शरीर   तो हो ही जाता है एक से दो हर बाप का  या हर मां का पर ‘वह’ नहीं हो पाता एक से दो जैसे मैं भी नहीं हो पाया बाप हो कर भी  एक से दो और न कभी हो पाऊंगा  शरीर के माध्यम से क्योंकि मैं शरीर नहीं मैं, मैं हूं जो सच्ची और सही समझ से,  पूर्ण शिक्षा से और  पूर्ण शिक्षक से होता है  एक से दो वरना  सिर्फ होते रहते हैं पिंड से पिंड  एक से दो नहीं हो पाता है इंसान से दूस...

ज़रूरत

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 ┈┉┅━❀꧁꧂❀━┅┉┈ ज़रूरत ┈┉┅━❀꧁꧂❀━┅┉┈ तुझे मेरी ज़रूरत है। मुझे तेरी ज़रूरत है। ज़रूरत से ये दुनिया है, बड़ी सबसे ज़रूरत है। ज़रूरत आदमी की है। ज़रूरत ज़िन्दगी की है। ज़रूरत दुःख के इस बाज़ार में, अदना हँसी की है। ज़रूरत खानदानी है। ज़रूरत की कहानी है। बुढ़ापे को ज़रूरत में ही, पूछे ये जवानी है। ज़रूरत से ही रिश्ते हैं। ज़रूरत पर जो हंसते हैं। ज़रूरत पर बिखरते हैं, ज़रूरत पर पनपते हैं। ज़रूरत पर भजन करते। ज़रूरत पर नमन करते। ज़रूरत पर ज़रूरतमंद, क्या क्या ही जतन करते। ज़रूरत मंज़िलों की है। ज़रूरत सब दिलों की है। है छोटी ज़िन्दगी लेकिन, ज़रूरत कई किलो की है। ज़रूरत हर किसी की है। ज़रूरत हर कहीं की है। ज़रूरत आसमां की तो, कभी होती ज़मीं की है। ज़रूरत जीत जाने की। ज़रूरत आजमाने की। ज़रूरत मुस्कुराने की, ज़रूरत घर ठिकाने की। ज़रूरत एक छत की है। ज़रूरत कुछ बचत की है। भरे पूरे घरों में अब, ज़रूरत एक मत की है। ज़रूरत श्वास की भी है। ज़रूरत आस की भी है। ज़रूरत लुप्त होते आजकल, विश्वास की भी है। ज़रूरत है सियासत की। ज़रूरत है बग़ावत की। ये दुनिया हो गई पापी, ज़रूरत है कयामत की। ज़रूरत गुफ्तगू की...