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पापा की परी

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तुम भी कितनी प्यारी बातें करती हो, बातों से कानों में मधुरस भरती हो। छोटी सी चिड़िया हो, जो पर फैलाए, उड़ती रहती क्यों ना कभी ठहरती हो। रोज बहाने, नये-पुराने होठों पर, नई कहानी नित-नित ही तुम गढ़ती हो। करता हूं जब बातें पढ़ने-लिखने की, पढ़ने से तो ज्यादा कहीं झगड़ती हो। जब से पैदा हुई, नापता ऊंचाई, दिन दूनी तुम रात चौगुनी बढ़ती हो। मनपसंद की जब न कोई चीज़ मिले, ज़िद करती हो कभी, कभी तुम लड़ती हो। कभी लगे जो चोट मुझे, मैं सहलाऊं, गोल बना कपड़े का, फूंक, रगड़ती हो। अगर दिखूं ना कभी तुम्हे कुछ दिन तक मैं, जाने किस अनजाने भय से डरती हो। कभी तुम्हारी टांग खींच लूं थोड़ी सी, बुरा मान जाती हो और बिगड़ती हो। अगर ध्यान ना कोई दे और छूट मिले, तो तुम दिनभर घर में दंगल करती हो। कभी देखती मम्मी को मेकअप करते, क्रीम पाउडर ज्यादा लगा संवरती हो। कभी शरारत करने पर जब डांट पड़े, खुद ही रोनी सूरत बना अकड़ती हो। अगर करे तारीफ जरा सी कोई भी, तुरत चने के झाड़ के ऊपर चढ़ती हो। अपनी सारी करतूतों की लिस्ट बना, सब गलती छोटे भाई पर मढ़ती हो। दुखी देखकर पापा को रोती हो तुम, पापा पर तुम कितनी जान छिड़क...

इस दिल का अफसाना

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  ये प्यार न ठुकराना, ना समझो अनजाना। दिल दिल से कहता है, जज़्बात समझ जाना। माना कि ये दिल मेरा, बन बैठा दीवाना। इकरार करे कैसे, मुश्किल है समझाना। चाहत तो है दिल की, हाल-ए-दिल बतलाना। नफरत को हसरत का, पागलपन दिखलाना। एक रोज़ यकीं हमको, होगा तुमको आना। जिस दिन तुम समझोगे, इस दिल का अफसाना।

घाव

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  मुझसे कुछ ना कहो, मन के घाव गहरे हैं। अच्छे स्वभाव की उम्मीद ना करो, मन में क्रोध के पहरे हैं।। आप सब वही हो, जिन्होंने मुझे घाव दिया है। गुनाह मेरा ये है कि मैंने, प्रेम का छांव दिया है।। बड़ा दिल दुख गया है मेरा, शब्द मन में ठहरे हैं। अच्छे स्वभाव की उम्मीद ना करो, मन में क्रोध के पहरे हैं।। सभी से अच्छा व्यवहार करूं, ये मेरा स्वभाव है। सब इसके लायक नहीं, इसलिये मन में घाव है।। और मजबूत बन सकूं, इसलिये क्रोध का ताव है। मेरे मन के घाव का कारण, मेरा अपना स्वभाव है।।

इज्जत से ईश आपको अशफ़ाक करेगा

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  कहता है दिल, जो दिल की भावना को ना समझे। तो आपकी इज्जत, ये दिल क्या खाक करेगा।। जब बार बार पूछें और जवाब ना मिले। तब फैसले दिल अपने ही बेबाक करेगा।। इज्जत जो चाहते हैं तो इज्जत भी दीजिए। अपमान का एक घूंट भी सब राख करेगा।। जब खुद को ही, औरों में भी देखेंगे, पाएंगे। इज्जत से ईश आपको, अशफ़ाक करेगा।।

पाइथागोरस प्रमेय बच्चों, है बहुत आसान

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पाइथागोरस प्रमेय को जान। पाइथागोरस प्रमेय बच्चों, है बहुत आसान।। लम्ब, आधार, कर्ण है, भुजा समकोण त्रिभुज की। कर्ण अग्रज की निशानी, लम्ब आधार अनुज की।। सिद्ध किया पाइथागोरस ने, देकर ठोस प्रमाण। पाइ‌थागोरस प्रमेय को जान। पाइथागोरस प्रमेय बच्चों, है बहुत आसान।। लम्ब, आधार का बच्चों, पृथक ही वर्ग निकालो। जोड़ दोनो वर्गों को संग आपस में मिला लो।। वर्गमूल जो उसका निकले, होगा कर्ण समान। पाइथागोरस प्रमेय को जान। पाइथागोरस प्रमेय बच्चों, है बहुत आसान।। कर्ण और लम्ब का बच्चों, पृथक ही वर्ग निकालो। कर्ण के वर्ग से बच्चों लम्ब का वर्ग घटा लो।। वर्गमूल उसका निकलेगा, जो आधार समान। पाइथागोरस प्रमेय को जान। पाइथागोरस प्रमेय बच्चों, है बहुत आसान।। कर्ण, आधार का बच्चों, पृथक ही वर्ग निकालो। कर्ण के वर्ग से अब तुम, वर्ग आधार घटा लो।। वर्गमूल निकलेगा फिर जो होगा लम्ब समान। पाइथागोरस प्रमेय को जान। पाइथागोरस प्रमेय बच्चों, है बहुत आसान।।

देवदूतों को शुक्रिया

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कहानी सत्रह दिन सुरंग मे फंसे मजदूरों की है। सिसकियां उनके परिवार की और जिम्मेदारी के कारण घर से दूर उन मजबूरों की है।। इकतालिस जान के साथ इकतालिस परिवार बसे थे। टनल मे सुरंग धंसने की वजह से ये मजदूर फंसे थे।। भारत देश के देवदूतों ने हार नही मानी। अपनी बुद्धि से बचाई उन्होंने इकतालिस जिन्दगानी।। उत्तराखण्ड में 12 नवम्बर 2023 है को वो मजदूर कहां जानते थे कि ऐसा हो जायेगा। देवदूतों को नमन व बारम्बार शुक्रिया अब ये मजदूर उनकी कृपा से अपने घर पहुंच पायेगा।।

अक्सर खामोश लब हो तो आंखें जरा सुन सको तो कुछ बोलती हैं।

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  अक्सर खामोश लब हो तो आंखें जरा सुन सको तो कुछ बोलती हैं। आंखों को गहराई से गर पढ़ो तो सुन "राम" वो राज-ए-दिल खोलती हैं।। 1 मीठी है बोली, गुड़ की डली है, बातों में उनकी मिश्री घुली है। बचना तू ऐ "राम" मीठी जुबां से मीठी जुबां ही ज़हर घोलती है।। 2 जरा सोच लो और थोड़ा समझ लो तभी "राम" दुनिया से कुछ बात बोलो। तू अनजान है जानता ही नहीं है कि दुनिया जुबां से तुझे तोलती है।। 3 चारों तरफ झूठ-ओ-गारत का मेला खड़ा है यहां सिर्फ सच ही अकेला। तू ऐ "राम" सच पर कहां तक चलेगा कि तूती यहां झूठ की बोलती है।।

वो जो इक शर्त थी वहशत की, उठा दी गई क्या।

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  वो जो इक शर्त थी वहशत की, उठा दी गई क्या | चेहरे से बेशर्म आँखें, झूठी हँसी, हटा दी गई क्या |1|  वो नजरें जो देखती थी, दरिन्दगी और वहशत से, उन नजरों को उनकी औकात, दिखा दी गई क्या |2|  वो जो हमारे बीच पर्दा, पर्दा सा कायम था कभी, हमारे बीच की वो दीवार, कहाँ है, गिरा दी गई क्या |3| उन गरीब, मज़बूर, मजदूरों की चीखें अब नही आती, कहाँ है वो, उनकी बेबस आवाज़, दबा दी गई क्या |4| अब नही दिखती सच्चाई और ईमानदारी की तस्वीरें, वो तस्वीरें, जरूरतों की लहर में, बहा दी गई क्या |5| ऐ “राम” इन्सानियत की तलाश है, मिलती ही नही, क्यों, दुनिया की सारी इन्सानियत, जला दी गई क्या |6| 

मैं क्यों हूँ तमाशा औ वक़्त तमाशाई है।

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  ऐ जिंदगी, बता, ये कैसी पशोपेश है, मैं क्यों हूँ तमाशा औ वक़्त तमाशाई है। दुनिया तमाशबीन है, तू खेल बन गयी, अरमान दिल का एक-एक धराशाई है। किस्मत कहे है कुछ लकीर-ए-दस्त कुछ कहे, इससे अलहदा मेहनत-परस्त कुछ कहे, ख्वाबों के महल में कोई तारीक है लिए, और हक़ीकत की झोपड़ी में रोशनाई है। ऐ जिंदगी, बता, ये कैसी पशोपेश है, मैं क्यों हूँ तमाशा औ वक़्त तमाशाई है। मैं हूँ बशर, हुआ हूँ कई बार दर-ब-दर, बेशक़ है दूर मुझसे मेरी मंज़िल औ डगर, जारी है बदस्तूर फिर भी मंज़िल-ए-सफ़र, मैं देखता हूँ वक्त कितना आतताई है। ऐ जिंदगी, बता, ये कैसी पशोपेश हैं, मैं क्यों हूँ तमाशा औ वक़्त तमाशाई है। नाशुक्र ना हो "राम" कभी आशनाई में, ना डूब किसी की वफ़ा की बेवफ़ाई में, ना हार मान ज़िंदगी की इस लड़ाई में, वर्ना तेरी खातिर तो सिर्फ़ जगहंसाई है। ऐ जिंदगी, बता, ये कैसी पशोपेश है, मैं क्यों हूँ तमाशा औ वक़्त तमाशाई है।

जिस वक़्त हुआ इशारा मेरे हुज़ूर का।

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किराये के मकाँ पर, इन्साँ ने खड़ा कर डाला, महल गुरूर का। हो जायेगा ज़मींदोज़, उसी वक़्त,, जिस वक़्त हुआ इशारा, मेरे हुज़ूर का। बदनिगाही, बदबयानी, बदमिज़ाजी, बदतमीज़ी छोड़ कर, तू खौफ़ खा, कब न जाने, किस घडी, किस मोड़ पर, किसको मिले दंड कैसा, इस कसूर का। सियासत खेल कर, वहशत, जलालत बाँट कर, मिलेगा क्या भला तुमको, मिलेंगी लानतें, रह जाएंगे ये हाथ ख़ाली ही, नशा टूटेगा जब तुम्हारा दौलत के सुरुर का। फ़लक पर भी वही काबिज़, जर्मी पर भी वही काबिज़, रहेंगे हो कर एक दिन, बशर्ते शर्त है इतनी सी ही इंसान की खातिर, कि वो दर्द-ए-बयाँ समझे किसी मज़बूर का। आशिक़, दीवाना, शायर न जाने क्या-क्या नाम, ईनाम में देकर, बदनाम कर डाला, तो फिर क्यों पूछता है "राम" तू अपनी बेख्याली में, कि क्या ईनाम दूँ, तुझको तेरे फितूर का।

जिसे हम दिवाली कहते हैं।

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जिसे हम दिवाली कहते हैं।      ****************** उत्सव है प्रकाश का, सत्य और विश्वास का, हर्ष और उल्लास का, श्रद्धा का और अरदास का, जिसे हम दिवाली कहते हैं। सदियों पुरातन पर्व है, हर भारतीय का गर्व है, यह सनातनी त्यौहार है, संस्कृति का आधार है, जिसे हम दिवाली कहते हैं। पाप का कर कर शमन, प्रभु राम का हुआ आगमन, स्मरण में उनके सदा, मनाते हैं हम दिए जला, जिसे हम दिवाली कहते हैं। विनती है गणाधीश से, माँ लक्ष्मी के आशीष से, सम्मान दें, सम्मान लें, धन लाभ सहित सब जान लें, जिसे हम दिवाली कहते हैं। **********************

दो बूंद गिरी मेरी आँखों से, मैं अश्क कहूँ या पानी।

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दो बूंद गिरी मेरी आँखों से, मैं अश्क कहूँ या पानी। कुछ दर्द है मेरे सीने में, उस दर्द की है ये निशानी। समझाया बहुत इस दिल को था, बर्बाद इसे होना था हुआ, दिल तो आवारा बादल है करे कौन इसकी निगरानी। कुछ दर्द है मेरे सीने में, उस दर्द की है ये निशानी। दिल टूट गया, बाकि न रहा, अरमान कोई भी जीने का, शिकवा भी करें तो किससे करें, खुद की है ये नाफ़रमानी। कुछ दर्द है मेरे सीने में, उस दर्द की है ये निशानी। गुमनाम हुए, बदनाम हुए, हम प्यार में पागल हो बैठे, हमें देख ज़माना कहता है, है प्यार बड़ी नादानी। कुछ दर्द है मेरे सीने में, उस दर्द की है ये निशानी।

उठने लगा जनाज़ा इन्सानियत का यारों।

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  उठने लगा जनाज़ा इन्सानियत का यारों। चारों तरफ नज़ारा हैवानियत का यारों। सस्ती है ज़िन्दगी, सस्ता है आदमी, अब मोल बढ़ गया है मरहुमियत का यारों। उठने लगा जनाज़ा इन्सानियत का यारों। इन्सान बन गया है वहशी और दरिंदा, गुज़रा है अब ज़माना मासूमियत का यारों। उठने लगा जनाज़ा इन्सानियत का यारों। अहसास मर गए हैं, ज़ज्बात मर गए, अब दौर चल रहा है बेईमानियत का यारों। उठने लगा जनाज़ा इन्सानियत का यारों। अब "राम" कह रहा है कैसे रहूँ मै जिंदा, लौट आए फिर ज़माना रूमानियत का यारों। उठने लगा जनाज़ा इन्सानियत का यारों।

फिर भी क्यों लगता है ऐसा कष्ट मेरा सबसे भारी।

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  तेरे हृदय में दावानल है, मेरे हृदय में चिंगारी। फिर भी क्यों लगता है ऐसा कष्ट मेरा सबसे भारी। परमेश्वर ने एक समान ही सबको नैमत दी लेकिन, रात वही है, किसी की रौशन और किसी की अंधियारी। फिर भी क्यों लगता है ऐसा कष्ट मेरा सबसे भारी। फल कर्मों का ही मिलता है, इन्सान को इस धरती पर, कोई दुखी है निज कर्मों से, कोई उसका आभारी। फिर भी क्यों लगता है ऐसा कष्ट मेरा सबसे भारी। हर इन्सान का अलग नजरिया इस जीवन के बारे में, कोई है आध्यात्म में खोया, कोई यहाँ पर संसारी। फिर भी क्यों लगता है ऐसा कष्ट मेरा सबसे भारी।

जिंदगी की जलालत औ बेआबरू।

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जिंदगी की जलालत औ बेआबरू। देखकर मैं हुआ, खुद से ही जर्द-रू।। मैने खुद को, तलाशा था खुद में कहीं। अब नया अक्स मेरा, मेरे रूबरू।। दिल में थोड़ा सा डर था, कहीं फिक्र सा। क्योंकि चारों तरफ था, मेरा जिक्र सा।। ऐसे बेदर्द, गमगीन, माहौल में। पूछता था ये दिल, मुझसे मैं क्या करूं।। जिंदगी की जलालत औ बेआबरू। देखकर मैं हुआ, खुद से ही जर्द-रू।। मैंने खुद को सम्हाला है, मुश्किल से पर। अब मैं तैयार हूं, पीने को हर जहर।। अब न कोने में छिपकर के बैठूंगा मैं। मैं खबरदार हूं, बेवजह क्यूं डरूं।। जिंदगी की जलालत औ बेआबरू। देखकर मैं हुआ, खुद से ही जर्द-रू।।

पांडिचेरी विलय दिवस

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पांडिचेरी विलय दिवस की, शुभेच्छा देता सहर्ष मैं। एक नवंबर शुभ दिन था वह, उन्नीस सौ चौवन के वर्ष में।। पुलकित पांडिचेरी वासी, जन से जन का संग बना था। हो स्वतंत्र पांडिचेरी, भारत भू का फिर अंग बना था।। लौट चले उपनिवेशवादी, चले फ्रांसीसी अपने घर को। वर्ष तीन सौ जिए जो डर डर, जीत गए वो अपने डर को।। तोड़ गुलामी की जंजीरें, हर्ष और उल्लास मनाया। और स्वतंत्र भारत का घर घर, शान तिरंगा लहराया।। पांडिचेरी विलय दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं

लौहपुरुष

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  वो आदमी थे या कोई दरख़्त थे, इरादों से वो बड़े ही सख़्त थे। जिन्होंने दी थी देश को अखंडता, वो दूरदृष्टा और देशभक्त थे।। चुनें गए थे राष्ट्र के प्रधान वो प्रथम, परन्तु त्याग पद को वो महान बन गए। विवेक, सत्यवान और कर्मशील वो, स्वयं ही राष्ट्रधर्म की पहचान बन गए।। ना पद की चाह थी उन्हे, आजाद ही खुश थे। वो कोई और नहीं, वो तो लौहपुरुष थे।।

उठो, सवेरा हुआ है।

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उठो, सवेरा हुआ है। जागो, नया दिन आया है। प्रभात, किरणों की चादर ओढ़, नयी उमंगों की लहर लाया है। आसमान कुछ नीला हो गया, सूरज नयी किरणें बिखेर रहा है। चिड़िया चहचहा कर गीत गा रही है, प्रकृति सबको नवीन ऊर्जा दे रही है। उठो, अपनी आंखें खोलो, नयी सोच और नया अंदाज ढूँढो। अपने सपनों की दुनिया में खो जाओ, जीवन की नयी उड़ान पर निकलो। प्रकाश साफ दृष्टिकोण लाया है, आओ, नए नजरिए के साथ नयी शुरुआत करें। सुबह की इस पावन खुशियों के साथ, जीवन को सुंदर सपनों और प्रयास से भर दें। उठो, सवेरा हुआ है। जागो, नया दिन आया है। प्रभात, किरणों की चादर ओढ़, नयी उमंगों की लहर लाया है।

हाँ सर्वविदित है विजय है सत्य से।

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यह आ रही आवाज़ है नेपथ्य से, हाँ सर्वविदित है विजय है सत्य से। निःस्वार्थ का भावार्थ है  कि त्याग दें हम स्वार्थ को, अपनाएं निज जीवन में हम सेवार्थ को, परमार्थ को। जीवन के मूल्यों पर चलें, जीवन में उच्च विचार हो, मन में हमारे एकता, सदभावना और प्यार हो। ना शर्मसार हों स्वयं के कृत्य से, हाँ सर्वविदित है विजय है सत्य से। राम ने रावण को मारा, पाप पर पाई विजय, सत्यभाषी हम बनें, यह है अजर, यह है अजय। पांडवों से युद्ध में मारे गए कौरव सभी, पांडवों ने सत्य का ना साथ छोड़ा था कभी। मुख मोड़ लें अधर्म और असत्य से, हाँ सर्वविदित है विजय है सत्य से।

जीवन तेरा इरादा क्या है?

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पा कर खोना, खो कर पाना, जग में इससे ज्यादा क्या है? सुधा कहीं और कहीं हलाहल, जीवन तेरा इरादा क्या है? मंजिल दूर नही है लेकिन, मंजिल को पाने की खातिर, इंसान में विश्वास है कितना, खुद से खुद का वादा क्या है? सुधा कहीं और कहीं हलाहल, जीवन तेरा इरादा क्या है? आँखों में उत्साह अगर हो, मन में भी विश्वास अगर हो और रंगों में भरा हो साहस तो इस सफ़र में बाधा क्या है? सुधा कहीं और कहीं हलाहल, जीवन तेरा इरादा क्या है? जीवन में कुछ मित्र मिले हैं, जैसे जगमग दीप जले हैं, मित्र, मित्र की मर्यादा है, क्या पूरा और आधा क्या है? सुधा कहीं और कहीं हलाहल, जीवन तेरा इरादा क्या है?

ऐ जिन्दगी तूने जीना सिखा दिया

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ऐ जिन्दगी तूने जीना सिखा दिया। ऐ जिन्दगी तूने हर गम पीना सिखा दिया।। ऐ जिन्दगी तूने मुझे मजबूत बनाया है। इसलिये मुझे आज तुझ पे बहुत प्यार आया है।। ऐ जिन्दगी आ मेरे पास तुझे गले लगा लूं। छोड़ के सारी बातें, सब सिर्फ तुझ पे लुटा दूं।। ऐ जिन्दगी मुझे डर था कि तुझे प्यार करने से मेरे रिश्ते टूट ना जाएं। अच्छा हुआ भ्रम टूट गया, चल खुल के जिया जाए।। ऐ जिन्दगी चल, तेरे साथ चलने का फैसला किया। शुक्रिया ऐ जिन्दगी तूने हर हाल में जीना सिखा दिया।। रचनाकार अनीता झा

कंटकों का ध्यान ना कर, लक्ष्य का संधान कर

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कंटकों का ध्यान ना कर, लक्ष्य का संधान कर। स्वयं पर विश्वास कर, तू सत्य का आह्वान कर।। कार्य कर परहित के तू, ना स्वयं पर अभिमान कर। स्वयं पर विश्वास कर तू, सत्य का आह्वान कर। शुभ कर्म कर कि आत्मग्लानि का कदापि न भार हो। तेरे विचारों से प्रखर ऊर्जा का नव संचार हो।। आदर्श पर चल कर सदा, तू स्व-चरित बलवान कर। स्वयं पर विश्वास कर तू सत्य का आह्वान कर।। ज्यों कृषक कर घोर श्रम, जग को खिलाता रोटियां। त्यों अडिग निश्चय से झुकती पर्वतों की चोटियां।। हो स्वयं से तू सफल, तू स्वयं का अनुमान कर। स्वयं पर विश्वास कर तू सत्य का आह्वान कर।। मनन कर अंतःकरण का, सीख ले जिजीविषा। लोकहित की भावना फैला तू चारों ही दिशा।। संकल्प कर स्व-आचरण से शील का निर्माण कर। स्वयं पर विश्वास कर तू सत्य का आह्वान कर।। सिंह मृग की दौड़ से दोनो की है जीवंतता। कामना पिंजरे के खग की तोड़ दे परतंत्रता।। प्रश्न तू कर ले स्वयं से, स्वयं ही समाधान कर। स्वयं पर विश्वास कर तू सत्य का आह्वान कर।। ना त्याग नैतिक मूल्य तू, आए भले ही आपदा। तेरे चरित्र की उच्चता ही, है तेरी निज संपदा।। कर के असत्य का आचरण, ना स्वयं को निष्प्र...

किसने रोका है तुझे ऊपर उठने से

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किसने रोका है तुझे ऊपर उठने से। एक नज़र डाल जरा ऊपर भी घुटने से।। कब तलक रहेगा सुविधाहीन वंचित। मस्तिष्क को कर सुविचारों से सिंचित।। गिरह खोल  स्वयं का निर्माण कर। कर्मठी, उद्यमी, परिश्रमी इंसान बन।। कुछ सपने अपनी आँखों में पाल। वक्त को अपने अनुसार ढाल।। कब तक शर्म की सीलन में सड़ेगा। निकल एक दिन तो लड़ना ही पड़ेगा।। न हो इस तरह किंकर्तव्यविमूढ़। निश्चय कर हो जा सफलता पर आरुढ़।। शर्म संकोच की दीवार गिरा दे। सम्मान स्वयं का ह्रदय में जगा दे।। यदि तू ख़ुद को इज्जत नहीं देगा। तो तेरे होने  न होने से फर्क नहीं पड़ेगा।। आत्मसम्मान की खातिर दुनिया से भिड़ना पड़ता है। अपने अधिकार के लिए हर रोज लड़ना पड़ता है।। इसलिए तैयार हो जा संघर्ष ही जीवन है। कुछ न करना न सोचना न विचारना ही मरण है।।

अल्फाज़ बना बैठे हैं हम

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डुबो कर रोशनाई में, कलम की आशनाई में औ कागज़ की गवाही में, मिला लफ्ज़ को लफ्जों से, अल्फाज़ बना बैठे हैं हम। अंजाम से हो बेखबर, मंज़िल से हो कर बेफिकर, है लापता अपनी डगर,  फिर भी सुनसान अंधेरों में, आगाज़ बना बैठे हैं हम। मौसिक़ी की चाह में, दर्द-ए-दिल की आह में, चाहतों की राह में, खुद को खुद से ही यहाँ, एक साज़ बना बैठे हैं हम। खुद में हो कर गुमशुदा, दुनिया से होकर के जुदा, हो दिल ही दिल में ग़मज़दा, कुछ कर ना सके तो खुद को ही, एक राज़ बना बैठे हैं हम। बेख़ौफ़ जिया जाए कैसे, यह ज़हर पिया जाए कैसे औ ज़ख्म सिया जाए कैसे, अब “राम” नया एक जीने का, अंदाज़ बना बैठे हैं हम।

अधिकार

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  अधिकार भाव से हर कोई, कहता है दो अधिकार मुझे। आधार मुझे, आहार मुझे, दो रहने को घर-बार मुझे। कर्तव्य भाव पर कोई नही, कहता है सीना ठोक ठोक। कर्तव्य निभा ना पाऊँ तो, दो घृणा और धिक्कार मुझे। माँ-बाप अनाथालय में हैं, वो स्वयं वाचनालय में है। कहता वाचन में चीख चीख, दो सेवा का अधिकार मुझे। वह पाठ अमन का करता है, और घर में हिंसा करता है। फिर आज स्वयं से कहता है, क्यों मिला नही है प्यार मुझे। बाबाओं को, नेताओं को, और बुद्धीजीवियों को देखो। करते है बात अमन की और कहते हैं दो हथियार मुझे। मैं "राम" लिखूँ ऐसी कविता, जिसको पढ़ पढ़ कर पाठकगण। दें मुझको स्नेह, प्रशंसा ही, है इतना तो अधिकार मुझे।

अंधतमस से ग्रस्त जीव का तम अरि दीप्त उजाला तुम।

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अंधतमस से ग्रस्त जीव का तम अरि दीप्त उजाला तुम। वैष्णवजन के तुम बैकुंठ हो शिव भक्तों का शिवाला तुम। तुम हो ब्रम्हा का ब्रम्हलोक गौमाता का गौशाला तुम। रचना, पालन, संहार तुम्ही गऊ, गंगा और हिमाला तुम। भक्ति सुधा की क्षुधा पिपासा प्रत्युत्तर में निवाला तुम। जो है विलीन तुममें केवल उस मस्त भक्त का हाला तुम। तुम गीता का उपदेश सुगम कुरुक्षेत्र खड़े विकराला तुम। सागर जिससे भयभीत हुआ वह शर से प्रकटी ज्वाला तुम। हो तिलक तुम्ही, तुम ही त्रिशूल चित्ताकर्षक मृगछाला तुम। मैं क्या दूं चारों ओर तुम्ही थाली, प्रसाद और माला तुम।

हाइकु 3

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*********** 1. "शब्द" संसार फैलाए सूविचार सुख आधार 2. "शब्द" रचना जब जुबान से हो "राम" बचना 3. "शब्द" विन्यास करने का प्रयास देता है आस 4. "शब्द" बोलते मन में छुपे राज़ "राम" खोलते 5. "शब्द" तोलिए मनोभाव खोलिए फिर बोलिए *************

जनहित में जारी

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आइए आज चलते हैं हंसी ठिठोली से भरे इस सफर में जो हमें हास परिहास की ट्रेन पर बैठ कर पूरा करना है। इस सफर में हास्य, मजाक, ठठ्ठा, उपहास, प्रसन्नता, खुशी, अट्टहास, ठहाका और खिल्ली जैसे स्टेशन होने के बावजूद यह ट्रेन हमें एक गंभीर विषय के चिंतन और मनन पर ले जाकर छोड़ेगी, तो आइए चलते है आनंद भरे इस मजेदार हंसाते, गुदगुदाते सफर में। आज मेरी हास्य कविता का शीर्षक है "जनहित में जारी" जो कि एक सामाजिक बुराई पर भी आपका ध्यान आकर्षित करेगी। करता हूं जनहित में जारी समाचार यह आज। इस घटना से शिक्षा ले कर रोको गलत रिवाज।। शर्मा जी की हेकड़ी धरी रह गई सारी। घटना का वर्णन करूं कर जनहित में जारी।। शर्मा जी अब ले रहे जैसे तैसे सांस। जब से लिया दहेज है गले पड़ी है फांस।। सोने का बेलन मिला चांदी का चकला। शर्मा जी के सर पे बाजे ता धिन धिन तबला।। ता धिन धिन तबला तिनक धिन नाच नचाए। नहीं किसी की हिम्मत आकर उन्हें बचाए।। शर्मा जी की बीवी बोली खाना नहीं पकाऊंगी। दस लाख का नगद दिया है होटल में ही खाऊंगी।। पोछा तुम्ही लगाना तुम ही कपड़े धोना। मेरे पास न आकर कोई दुखड़ा रोना।। शर्मा जी से जब पूछा कैसे हैं...

हाइकु 2

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1 ********** सौभाग्यशाली मात-पिता की गोद बेटियों वाली *********** 2 ************ पुष्प बेटियाँ कहते अभिशाप जघन्य पाप ************* 3 ********* बेटियाँ बोझ कैसी यह घिनौनी मानव सोच ********** 4 ********** अब सबला माँ, बहन, बेटियाँ, नही अबला ********** 5 ************* पिता का मान बेटियाँ माँ की शान शक्ति महान ************** 6 *********** छीनो न श्वास कन्या वध पाप है करो विश्वास ************

हाइकु 1

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1 ======= जिंदगी अर्थ हँसना, मुस्कुराना जीने की शर्त ======= 2 ======= जिंदगी गर्त गम में डूब जाना आँसू है व्यर्थ ======= 3 ======= जिंदगी अर्थ सुनहरी यादों की धुंधली पर्त ======= 4 ======= जिंदगी पथ मानव है पथिक मौत गंतव्य ======= 5 ======== कोई भी कहीं कायदा-ए-जिंदगी समझा नही ======== 6 ======= सत्य विचार जिंदगी का अर्थ है परोपकार =======

“राम” अब तक पढ़ न पाया क़ायदा-ए-ज़िन्दगी

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परिस्थिति अनुकूल तो, होती कभी प्रतिकूल है, मन में कभी उल्लास तो, चुभता कभी एक शूल है। निःशब्द सा एकाकीपन कभी हृदय को झकझोर दे, कभी सुखद अनुभव से हृदय मायूसियों को तोड़ दे। कभी अनमनी, अनजान सी राहों पर चलती ज़िन्दगी, कभी बन के सपने सुरमई आँखों में पलती ज़िन्दगी। कभी ज़िन्दगी लगती है जैसे हो मुलायम, नर्म सी, कभी तोड़ देती है हदें यह ज़िन्दगी बेशर्म सी। कातिलाना मुस्कुराहट से ये हँसती है कभी, बन के खुशियों का समंदर दिल में बसती है कभी। है कोई जो जानता है ज़िन्दगी का फ़लसफ़ा, क्यों कभी दिल खुशनुमा है, क्यों कभी है ग़मज़दा। सोच कर हैरान हूँ कि चीज़ क्या है ज़िन्दगी, “राम” अब तक पढ़ न पाया क़ायदा-ए-ज़िन्दगी।

मैं लेखनी हूँ, क्या लिखूँ

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------------------------------------------------------ मैं लेखनी हूँ, क्या लिखूँ, विषय वस्तु का भंडार है, किस पर लिखूँ, क्या छोड़ दूं, यह प्रश्न बारम्बार है | मैं प्रेरणा के, चेतना के शब्द ही दो बोल दूं, या भ्रष्ट नेताओं की मैं करतूत सारी खोल दूं | सौन्दर्य रस का काव्य लिख, मन में भरूँ उमंग ही, या हास्य से मैं स्याही ले, लिख डालूँ कोई व्यंग ही | मैं करुण रस ऐसा लिखूँ कि नीर आँखों से बहे, या “राम” कुछ ऐसा लिखूँ, श्रोता लगाएं कहकहे | सामाजिक कुरीतियों की मैं, लिख कर करूँ आलोचना, या कुछ नया लिखने की मैं फिर से बनाऊँ योजना | कष्ट निर्धन का लिखूँ या विलासिता धनवान की, या मैं लिखूँ एक आरती, भक्ति भरी भगवान की | या फिर, लिखूँ सौहार्द से परिपूर्ण एक कविता नई, जिससे बहे जनचेतना, सद्कर्म की सरिता नई |   ----------------------------------------------------------

निराकारं, निर्विकारं, निर्गुणं परमेश्वरम

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सर्वव्यापी, परमशक्ति ईश को कर लें नमन। निराकारं, निर्विकारं, निर्गुणं परमेश्वरम।। सृष्टि के घट घट में और कण कण में जिनका वास है। उनकी ही महिमा से तो हर जीव में हर श्वास है।। हर बुराई का हमें करना हृदय में है शमन। निराकारं, निर्विकारं, निर्गुणं परमेश्वरम।। हम निरर्थक लोभ में अब और ना आसक्त हों। ईश माता और पिता हैं, हम उन्हीं के भक्त हों।। शुभ विचारों से है करना हमको अपना शुद्ध मन। निराकारं, निर्विकारं, निर्गुणं परमेश्वरम।। इंद्रियों को संयमित कर भक्ति के रथ पर चलें। पाप को तज, ईश को भज, सत्य के पथ पर चलें।। ना किसी को कष्ट दें हम, आज ही से लें ये प्रण। निराकारं, निर्विकारं, निर्गुणं परमेश्वरम।। सर्वव्यापी, परमशक्ति ईश को कर लें नमन। निराकारं, निर्विकारं, निर्गुणं परमेश्वरम।।